परिसीमन आयोग | parisiman aayog

परिसीमन होता क्या है?

परिसीमन यानी सीमा का निर्धारणा संविधान के अनुच्छेद 82 में स्पष्ट कहा गया है कि प्रत्येक 10 साल में जनगणना के बाद सरकार परिसीमन आयोग बना सकती है। यह आयोग ही आबादी के हिसाब से लोकसभा और विधानसभा के लिए सीटें बढ़ा-घटा सकता है।
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इसका मुख्य उद्देश्य आबादी के हिसाब से विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों को बराबरी से बांटना है ताकि पूरे देश में एक वोट की एक ही कीमत रहे। इसका उद्देश्य सीमाओं (पिछली जनगणना के आकड़ों के आधार पर) को इस तरह से फिर से बनाना है ताकि सभी सीटों की आबादी. जहां तक संभव हो व पूरे राज्य में समान हो। एक निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं को बदलने के अलावा इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप राज्य में सीटों की संख्या में भी परिवर्तन हो सकता है।

परिसीमन आयोग 2002

केन्द्र सरकार ने 12 जुलाई, 2002 को न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग का गठन किया। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा राज्य निर्वाचन आयुक्त आयोग के पदेन सदस्य थे। परिसीमन अधिनियम, 2002 में प्रत्येक राज्य से आयोग के 10 संबद्ध सदस्यों का भी प्रावधान है जो राज्य के संसद सदस्यों एवं विधान सभा सदस्यों में से होंगे। चुनाव आयोग का सचिव परिसीमन आयोग के पदेन सचिव का कार्य करेगा। परिसीमन आयोग ने निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए अपना कार्य किया-
  1. सभी निर्वाचन क्षेत्र यथासंभव, भौगोलिक रूप से सुसंबद्ध हों और उनका परिसीमन करते समय उनकी प्राकृतिक बनावट, प्रशासनिक इकाइयों की वर्तमान सीमाओं, आवागमन की सुविधा तथा जनता की सहूलियत को ध्यान में रखा जाएगा।
  2. किसी राज्य की प्रत्येक संसदीय और विधान सभा क्षेत्रों का परिसीमन इस प्रकार किया जाएगा कि इनमें जनसंख्या का अनुपात कमोबेश एक हो। अधिक से अधिक 10 प्रतिशत का विचलन हो। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही इससे अधिक विचलन की अनुमति होगी।
  3. प्रत्येक विधान सभा क्षेत्र का परिसीमन इस प्रकार किया जाए कि उसका सम्पूर्ण भाग एक संसदीय निर्वाचन और यथासंभव एक ही जिले में पड़े।
  4. प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र का परिसीमन करते समय यह ध्यान में रखा जाय कि जिले/तहसील ब्लॉक की प्रशासनिक इकाई को एक ही विधान सभा क्षेत्र में रखा जाए।
  5. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या का प्रतिशत जिस संसदीय या विधानसभा क्षेत्र में तुलनात्मक रूप से अधिक हो वही सीट इन वर्गों के लिए आरक्षित की जाए।
  6. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण राज्य की कुल जनसंख्या में उनकी जनसंख्या के अनुपात द्वारा निर्धारित किया जाय।

परिसीमन का इतिहास

भारत के संविधान के अनुच्छेद 82 के अनुसार, भारत सरकार हर 10 साल में जनगणना के पश्चात परिसीमन आयोग का गठन कर सकती है। हर परिसीमन के बाद जनसंख्या के हिसाब से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सीटों की संख्या में बदलाव किया जाता है।
भारत में वर्ष 1952 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था। 1952 के बाद वर्ष 1963, 1973 और वर्ष 2002 में परिसीमन आयोग गठित किए जा चुके हैं। भारत में वर्ष 2002 के बाद परिसीमन आयोग का गठन नहीं किया गया हैं।
12 जुलाई, 2002 को उच्चतम न्यायालय से अवकाश प्राप्त न्यायधीश कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट को केन्द्र सरकार को वर्ष 2007 में सौंपा था जिसे तत्कालीन मनमोहन सरकार ने अनदेखा कर दिया परंतु वर्ष 2008 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पश्चात वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रें का परिसीमन किया गया।

परिसीमन आयोग की कार्यवाही

परिसीमन आयोग ने अपना कार्य 2001 की जनगणना के आधार पर जून, 2004 से प्रारंभ किया। आयोग ने अगस्त, 2007 तक जम्मू व कश्मीर एवं गैर विधानसभा वाले 5 संघ शासित प्रदेशों को छोड़कर 29 राज्यों एवं संघ शासित प्रदेशों में से 25 के संदर्भ में अपना अंतिम आदेश जारी कर दिया। असम, अरुणाचल प्रदेश एवं नागालैण्ड के संदर्भ में गुवाहाटी उच्च न्यायालय में तथा मणिपुर के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में वाद लम्बित रहने के कारण परिसीमन की कार्यवाही स्थगित कर दी गयी। इस प्रकार 513 लोक सभा एवं 3726 विधान सभा सीटों के लिए सभी स्तर पर परिसीमन कार्यवाही पूर्ण कर ली गयी।
परिसीमन आयोग द्वारा जिन 25 राज्यों एवं संघ शासित प्रदेशों के संबंध में अंतिम आदेश जारी किए गये थे उनमें से एक झारखण्ड राज्य की बाबत दिए गये अंतिम आदेशों को उस राज्य में होने वाले लोक सभा या विधान सभा के लिए प्रत्येक निर्वाचन के संबंध में वर्ष 2026 तक आवृत कर दिया गया है। त्रिपुरा, मेघालय में पुन: समायोजन 20 मार्च, 2008 से प्रभावी हुये जबकि शेष 22 राज्यों में पुनः समायोजन 19 फरवरी, 2008 से ही प्रभावी हो गये।

परिसीमन (संशोधन) अधिनियम

परिसीमन अधिनियम, 2002 के अंतर्गत परिसीमन आयोग को जम्मू व कश्मीर के अतिरिक्त प्रत्येक राज्य तथा ऐसे प्रत्येक संघ राज्य क्षेत्र जहां विधान सभा है, के निर्वाचन क्षेत्रों के पुनः समायोजन का अधिकार प्रदान किया गया था। परिसीमन अधिनियम, 2002 में संशोधन के लिए परिसीमन (संशोधन) अध्यादेश, 2008, 14 जनवरी, 2008 को पारित किया गया। इस अध्यादेश के द्वारा परिसीमन अधिनियम, 2002 में निम्न संशोधन किए गये।

धारा 10 में संशोधन
धारा 10 की उपधारा (4) में यह जोड़ा गया कि इस उपधारा की कोई बात झारखंड राज्य की बाबत प्रकाशित परिसीमन आदेशों के संबंध में लागू नहीं होगी। धारा 10 की उपधारा 6(1) में प्रकाशित “आयोग के गठन के 2 वर्ष के भीतर" के स्थान पर "उस अवधि के अंदर जो 31 जुलाई, 2008 के बाद न हो" प्रस्थापित किया जाएगा।

धारा 10 में सम्मिलित किया जाना
मुख्य विधेयक की धारा 10 के आगे निम्न 2 धाराओं को सम्मिलित किया जाएगा। 10A(1) राष्ट्रपति को ऐसा लगे कि भारत की एकता और अखण्डता को खतरा पैदा होने की संभावना है और शांति और लोक व्यवस्था को गंभीर खतरा है तो वह उस राज्य में परिसीमन कार्य को तत्काल प्रभाव से और आगे आदेशों तक स्थगित कर सकता है।
10A(2) इस धारा के अंदर कोई भी आदेश संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखा जाएगा। 14 जनवरी, 2008 को पारित अध्यादेश को अधिनियम बनाने हेतु परिसीमन संशोधन विधेयक 2008 लोक सभा एवं राज्य सभा में क्रमशः 11 एवं 18 मार्च, 2008 को पारित हो गया।

परिसीमन से संबंधित संवैधानिक प्रावधान

अनुच्छेद विषय
  • 81 लोक सभा की संरचना
  • 82 प्रत्येक जनगणना के पश्चात् पुनः समायोजन
  • 170 विधानसभाओं की संरचना
  • 330 लोक सभा में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए स्थानों का आरक्षण
  • 332 राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का आरक्षण

84वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2001
इस संविधान संशोधन द्वारा लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं की वर्तमान संख्या को 2026 के पश्चात् होने वाली जनगणना तक स्थिर और अपरिवर्तनीय रखा गया है। लेकिन इसमें यह प्रावधान किया गया है कि परिसीमन आयोग द्वारा लोक सभा और राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचन क्षेत्रों को परिवर्तित तथा पुनर्गठित किया जा सकता है। इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के निर्वाचन क्षेत्र भी शामिल हैं।

87वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2001
इस संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 81, 82, 170 एवं 330 में आधार वर्ष 2001 की जनगणना को माना गया है। (पूर्व में यह 1991 था।) इस प्रकार 2001 की जनगणना के अनुसार निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन कार्य पूर्ण हो गया जो अगले परिसीमन आयोग के गठन तक प्रभावी रहेगा।
गत् परिसीमन 1971 की जनगणना पर आधारित था, तबसे लेकर 2001 तक भारत की जनसंख्या में 87% की वृद्धि हो चुकी थी। अतः नया परिसीमन आवश्यक था। नये परिसीमन से अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग को अपनी संख्या के अनुरूप आरक्षण प्राप्त हो सका है तथा विगत परिसीमन में महसूस की गयी व्यावहारिक कठिनाइयों को इसमें सुधारा गया है।

बाधाएं
एक नई बात यह देखने में आयी है कि परिसीमन जैसा राष्ट्रीय महत्व का कार्य भी बाधा रहित ढंग से सम्पन्न नहीं हो पा रहा है। उत्तर पूर्व के 4 राज्यों का परिसीमन जहां अशांति की आशंका से स्थगित कर दिया गया वहीं झारखण्ड के संबंध में पारित अंतिम आदेश को इसलिए निष्प्रभावी किया गया है कि इससे वहां अनुसूचित जनजाति की सीटें कम हो जाती।

परिसीमन संशोधन विधेयक को संसद की मंजूरी : लोक सभा में आरक्षित सीटों की संख्या में वृद्धि
पूर्वोत्तर के चार राज्यों (असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर व नागालैण्ड) और झारखण्ड को परिसीमन से छट देने के लिए लाए गए परिसीमन संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों ने मार्च 2008 में मंजूरी दे दी। लोक प्रतिनिधित्व संशोधन विधेयक 2008 को भी संसद की मंजूरी इसके साथ ही मिल गई है, राज्य सभा ने इन दोनों विधेयकों को 18 मार्च, 2008 को अनुमोदन प्रदान किया था। लोक सभा इन्हें पहले ही मंजूरी दे चुकी थी। उन्होंने बताया कि पूर्वोत्तर के चार राज्यों को परिसीमन प्रक्रिया से अलग रखने के लिए इस विधेयक में प्रावधान इसलिए किया गया था, क्योंकि वहां की स्थितियां इसके अनुरूप नहीं थी, उन्होंने बताया कि सरकार को आशंका है कि इसके कारण वहां अशांति उत्पन्न हो सकती थी।

जम्मू और कश्मीर में परिसीमन

जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून, 2019 (JKRA) के तहत विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन की प्रक्रिया चल रही है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के भाषण में साफ कर दिया था कि जम्मू-कश्मीर में पहले परिसीमन होगा, फिर चुनाव। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने के लिए परिसीमन महत्वपूर्ण है।

आवश्यकता क्यों?
5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म हुआ, तब इसे दो केंद्रशासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लदाख में बांटा गया। चूंकि, जम्मू-कश्मीर में विधानसभा प्रस्तावित है. इस वजह से नए केंद्रशासित प्रदेश में परिसीमन जरूरी हो गया था।
इसी वजह से सरकार ने मार्च 2020 में सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में परिसीमन आयोग बनाया। देसाई के अलावा चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और जम्मू कश्मीर के चुनाव आयुक्त के के शर्मा इस परिसीमन आयोग के सदस्य हैं।

परिसीमन से जम्मू-कश्मीर में क्या बदल जाएगा?
परिसीमन से जम्मू-कश्मीर में में सीटें बचने वाली हैं। इस समय राज्य में 107 सीटें हैं, जिनमें 24 सीटें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POk) में हैं। वहीं, चार सौटें लद्दाख में थी, जिसके अलग होने से जम्मू-कश्मीर में इफेक्टिव स्ट्रेथ 83 सीटों की हो जाएगी। पर, JKRA के तहत नए जम्मू-कश्मीर में 90 सीटें होंगी। यानी पहले से सात अधिक। PoK को 24 सीटें मिला तो सीटों की संख्या बढ़कर 114 हो जाएंगी।

जम्मू-कश्मीर के परिसीमन की खास बातें
जम्मू-कश्मीर में इससे पहले 1963, 1973 और 1995 में परिसीमन हुआ था। राज्य में 1991 में जनगणना नहीं हुई थी। इस वजह से 1996 के चुनावों के लिए 1981 की जनगणना को आधार बनाकर सीटों का निर्धारण हुआ था। जम्मू-कश्मीर में परिसीमन के तहत जम्मू कश्मीर रीऑर्गेनाइजेशन एक्ट (JKRA) के प्रावधानों का भी ध्यान रखना होगा। इसे अगस्त 2019 में संसद ने पारित किया था। इसमें अनुसूचित जनजाति के लिए सोटें बढ़ाने की बात भी कही गई है। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून, 2019 में साफ तौर पर कहा गया है कि केंद्रशासित प्रदेश में परिसीमन 2011 की जनगणना के आधार पर होगा।

एक साथ चुनाव

आवश्यकता क्यों?
विधायी कामकाज पर प्रभाव
निरंतर चुनावों के दुष्चक्र ने विधायी स्थिरता को प्रभावित किया है। यदि स्थानीय चुनावों को भी शामिल कर लिया जाए तो हमारे देश में हमेशा कोई न कोई चुनाव कार्य चलता रहता है।

गवर्नेस पर प्रभाव
लाभ के रूप में देखें तो इससे विभिन्न सरकारों को शासन के लिए लगभग 5 वर्षों तक समर्पित रूप से कार्य करने की सुविधा प्राप्त होगी क्योंकि लगातार आयोजित होने वाले चुनावों के कारण चुनाव जीतना प्रायः सभी नेताओं की पहली प्राथमिकता बन जाती है। परिणामस्वरूप शासन के संचालन और लोगों की शिकायतों के समाधान की प्रक्रिया में नेताओं की भूमिका गौण हो जाती है तथा नौकरशाही प्रधान हो जाती है।

अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
लगातार होने वाले चुनावों का भारी आर्थिक बोझ कम होगा। तथा आदर्श आचार संहिता के लागू होने से नई कल्याणकारी योजनाओं और अन्य सरकारी उपायों की घोषणा आम तौर पर । नहीं हो पाती है जिससे आर्थिक विकास की गति में बाधा उत्पन्न होती है।

चुनौतियाँ
विधानसभा व लोकसभा के चुनाव एक साथ कराना लगभग असंभव है क्योंकि राजनीतिक वास्तविकताओं के कारण एक विधानसभा असामयिक ढंग से भंग होते रहती है। समय पूर्व विघटन, जो एक साथ चुनाव के सिद्धांत का उल्लंघन है जो कि कई तरीकों से संभव हो सकता है यथा-
  1. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत केंद्र सरकार अपनी शक्तियों का दुरूपयोग पर कोई बार विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जाता रहा है तथा समय से पहले विधानसभाओं को भंग कर चुनावी स्थिति उत्पन्न कर दी जाती है।
  2. प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री राष्ट्रपति या राज्यपाल को जैसा भी सन्दर्भ हो, चुनावी लाभ हासिल करने के लिए समयपूर्व विघटन की सलाह दे सकते है।
  3. सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पास करके या सरकार के विश्वास प्रस्ताव को गिराकर। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 174 के अनुसार क्रमश: लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव इनके विघटन से छह महीने के भीतर आयोजित किया जाना अनिवार्य है। यदि चुनाव तय अवधियों में ही आयोजित किये जाते हैं तो इस प्रावधान का अनुपालन नहीं हो पाएगा। इसके अलावा अगर चुनाव विघटन के छह महीने के भीतर आयोजित नहीं किये जाते हैं तो यह लोकतंत्र का मखौल उड़ाने जैसा होगा।
  • लगातार होने वाले चुनाव राजनेताओं को मतदाताओं के पास आने तथा जनता के प्रति जवाबदेह बनाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही विभिन्न स्तरों पर चुनावों के परिणाम 'जनता की नब्ज टटोलने में सहायक होते हैं तथा राजनेताओं का बदली हुई परिस्थितियों में अपने नीतियों और कार्यक्रमों में बदलाव करने में सहायता करते हैं।
  • मतदाताओं के समक्ष स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों के मिश्रण की स्थिति उत्पन्न हो सकती है तथा इन परिस्थितियों में मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों की अपेक्षा क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों को अधिक महत्व देते हैं।
  • सुरक्षा संबंधी चिंताओं की बात करें तो एक ही बार में पूरे देश में एक साथ चुनाव का संचालन करने के लिए सुरक्षा कर्मियों की कमी, चुनावी और प्रशासनिक मशीनरियों तथा अन्य आवश्यक संसाधनों की अपर्याप्त उपलब्धता भी इस संदर्भ में एक बड़ा मुद्दा है।

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