संविधान की मूल संरचना
भारतीय संविधान के विकास को जिस बात ने बहुत दूर तक प्रभावित किया है वह है संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत। आप यह बात पहले से ही जानते हैं कि इस सिद्धांत को न्यायपालिका ने केशवानंद भारती के प्रसिद्ध मामले में प्रतिपादित किया था। इस निर्णय ने संविधान के विकास में निम्नलिखित सहयोग दियाः-
- इस निर्णय के द्वारा संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गई।
- यह संविधान के किसी या सभी भागों के संपूर्ण संशोधन (निर्धारित सीमाओं के अंदर) की अनुमति देता है।
संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्त्व का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के बारे में न्यायपालिका का फ़ैसला अंतिम होगा - केशवानंद भारती मामले में यह बात स्पष्ट हो गई।
सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद के मामले में 1973 में निर्णय दिया था। बाद के चार दशकों में संविधान की सभी व्याख्याएँ इसको ध्यान में रखकर की गयी। samvidhan ki sanrachna
संरचना का सिद्धांत स्वयं में ही एक जीवंत संविधान का उदाहरण है। संविधान में इस अवधारणा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह एक ऐसा विचार है जो न्यायिक व्याख्याओं से जन्मा है। विगत तीन दशकों के दौरान बुनियादी संरचना के सिद्धांत को व्यापक स्वीकृति मिली है। इस तरह देखा जाए तो न्यायपालिका और उसकी व्याख्याओं के चलते भी संविधान में संशोधन हुए हैं।
सभी जीवंत संविधान बहस, तर्क-वितर्क, प्रतिस्पर्धा और व्यावहारिक राजनीति की प्रक्रिया से गुजर कर ही विकसित होते हैं।
1973 के बाद न्यायालयों ने कई मामलों में बुनियादी संरचना के तत्वों को निर्धारित करने का प्रयास किया है। एक अर्थ में, बुनियादी संरचना के सिद्धांत से संविधान की कठोरता और लचीलेपन का संतुलन और मजबूत ही हुआ है। संविधान के कुछ हिस्सों को संशोधन के दायरे से बाहर रखने और उसके कुछ हिस्सों को संशोधन प्रक्रिया के अंतर्गत लाने से कठोरता और लचीलेपन का संतुलन निश्चय ही पुष्ट हुआ है।
ऐसे कई और उदाहरण मौजूद हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि संविधान की समझ को बदलने में न्यायिक व्याख्याओं की अहम भूमिका रही है। नौकरियों तथा शैक्षिक संस्थाओं में आरक्षण सीमा तय करने के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला दिया है कि आरक्षित सीटों की संख्या सीटों की कुल संख्या के आधे से अधिक नहीं होनी चाहिए। इस निर्णय को अब एक सिद्धांत के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। इसी प्रकार अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण नीति के अंतर्गत स्थान देते हुए उच्चतम न्यायालय ने क्रीमी लेयर का विचार सामने रखा और यह फैसला दिया कि इस श्रेणी से संबंधित व्यक्तियों को आरक्षण के लाभ नहीं मिलने चाहिए। इसी तरह, न्यायपालिका ने शिक्षा, जीवन, स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक समूहों की संस्थाओं की स्थापना और उनके प्रबंधन के अधिकारों के उपबंधों में अनौपचारिक रूप से कई संशोधन किए हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि न्यायालय के आदेशों की भी संविधान के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
संविधान की समीक्षा
नवें दशक के अंतिम वर्षों में समूचे संविधान की समीक्षा करने का विचार सामने आया। सन् 2000 में भारत सरकार ने उच्चतम न्यायालय के सेवा निवृत्त मुख्य न्यायाधीश श्री वेंकटचलैया की अध्यक्षता में एक आयोग नियुक्त किया जिसका उद्देश्य संविधान के कामकाज की समीक्षा करना था। विपक्षी दल तथा अन्य संगठनों ने इस आयोग का बहिष्कार किया। आयोग को लेकर उठा राजनीतिक विवाद अपनी जगह है लेकिन गौर करने की बात यह है कि आयोग ने बुनियादी संरचना में विश्वास जताया और ऐसे किसी कदम की सिफारिश नहीं की जिससे संविधान की बुनियादी संरचना को चोट पहुँचती हो। इससे पता चलता है कि हमारे संविधान में बुनियादी संरचना के सिद्धांत को कितना महत्त्व दिया गया है।
संविधान एक जीवंत दस्तावेज़
हमने संविधान को एक जीवंत दस्तावेज़ माना है। इसका क्या अर्थ है?
लगभग एक जीवित प्राणी की तरह यह दस्तावेज़ समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है। जीवंत प्राणी की तरह ही यह अनुभव से सीखता है। वास्तव में यह उस पहेली का उत्तर है जिसका जिक्र हमने शुरुआत में संविधान के टिकाऊपन के बारे में किया था। समाज में इतने सारे परिवर्तन होने के बाद भी हमारा संविधान अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है। यही लोकतांत्रिक संविधान का असली मानदंड है।
लोकतंत्र में व्यावहारिकताएँ तथा विचार समय-समय पर विकसित होते रहते हैं और समाज में इसके अनुसार प्रयोग चलते रहते हैं। कोई भी संविधान जो प्रजातंत्र को समर्थ बनाता हो और नए प्रयोगों के विकास का रास्ता खोलता हो वह केवल टिकाऊ ही नहीं होता बल्कि अपने नागरिकों के बीच सम्मान का पात्र भी होता है। महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या संविधान खुद का और लोकतंत्र का संरक्षण करने में सक्षम है?
पिछले छह दशकों के दौरान देश की राजनीति तथा संवैधानिक विकास के मामले में बहुत ही महत्त्वपूर्ण परिस्थितियाँ पैदा हुईं। इस अध्याय में हम उनमें से कुछ परिस्थितियों का उल्लेख कर चुके हैं। 1950 से संवैधानिक तथा वैधानिक मुद्दों के बारे में बार-बार सामने आने वाला सबसे गंभीर प्रश्न संसद की सर्वोच्चता का था। संसदीय लोकतंत्र में संसद देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती है और इसलिए ऐसा माना जाता है कि कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर इसको वरीयता प्राप्त है। इसी प्रकार संविधान में सरकार के अन्य घटकों को भी शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इसलिए यह अपेक्षा की जाती है कि संसद की सर्वोच्चता इस ढाँचे के अंतर्गत ही हो। प्रजातंत्र का अर्थ केवल वोट तथा जन प्रतिनिधियों तक ही सीमित नहीं है। प्रजातंत्र का अर्थ विकासशील संस्थाओं से है और इनके माध्यम से ही वह कार्य करता है। सभी राजनीतिक संस्थाओं को लोगों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और दोनों को एक दूसरे के साथ मिलकर चलना चाहिए।
न्यायपालिका का योगदान
न्यायपालिका तथा संसद के विवाद के दौरान संसद का मानना था कि उसके पास गरीब, पिछड़े तथा असहाय लोगों के हितों की रक्षा के लिए कानून बनाने (संशोधन करने) की शक्ति मौजूद है। न्यायपालिका ने इस बात पर जोर दिया कि ये सब कार्यकलाप संवैधानिक ढाँचे के अंतर्गत किए जाने चाहिए और जनहित के उपाय विधिक सीमाओं के बाहर नहीं होने चाहिए क्योंकि एक बार कानून की सीमाओं से बाहर जाने की छूट मिलने पर सत्ताधारी उसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं। प्रजातंत्र में जितना महत्त्व जनकल्याण को दिया जाता है उतना ही ध्यान इस बात पर देना पड़ता है कि सत्ता का दुरूपयोग न होने पाए।
भारतीय संविधान की सफलता इन तनावों को सुलझाने में ही निहित है। न्यायपालिका ने केशवानंद के मामले में संविधान की भाषा पर नहीं बल्कि उसकी आत्मा के आधार पर निर्णय दिया। संविधान पढ़ने पर आपको संविधान के मूल ढाँचे के बारे में कहीं उल्लेख नहीं मिलेगा। संविधान में ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया है कि उसका फलाँ भाग मूल संरचना का हिस्सा है। इस प्रकार मूल संरचना न्यायपालिका द्वारा स्वयं विकसित की गई अवधारणा है।
न्यायपालिका ने इस अवधारणा को कैसे विकसित किया? पिछले चार दशकों के दौरान अन्य संस्थाओं ने इसे किस प्रकार अपनाया है?
यहीं आकर हमें शब्द और भावना के बीच का अंतर पता चलता है। न्यायालय का यह मानना है कि किसी दस्तावेज़ को पढ़ते समय हमें उसके निहितार्थ पर ध्यान देना चाहिए। कानून की भाषा की अपेक्षा उस कानून या दस्तावेज़ के पीछे काम करने वाली सामाजिक परिस्थितियाँ तथा अपेक्षाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। इसलिए न्यायालय ने संविधान की मूल संरचना पर विशेष ध्यान दिया क्योंकि इसके बिना संविधान की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
राजनीतिज्ञों की परिपक्वता
उपर्युक्त अनुच्छेद में न्यायपालिका के बारे में की गई हमारी चर्चा से एक और तथ्य उजागर होता है। 1967 से 1973 के दौरान पैदा हुए कटु विरोधाभासों के दौर में संसद तथा कार्यपालिका ने एक संतुलित तथा दीर्घकालीन समाधान की आवश्यकता को महसूस किया। केशवानंद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद, न्यायालय द्वारा इस पर पुनर्विचार कराने के प्रयास किए गए। जब ये सारे प्रयास विफल रहे तो 42 वाँ संशोधन किया गया और संसद की सर्वोच्चता स्थापित की गई लेकिन मिनर्वा मिल प्रकरण (1980) में न्यायालय ने अपने पहले लिए गए निर्णय को पुनः दोहराया। इसलिए केशवानंद मामले में निर्णय दिए जाने के चार दशकों के बाद भी संविधान की व्याख्या में इस निर्णय ने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। राजनैतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद ने भी मूल संरचना के संवेदनशील विचार को स्वीकृति प्रदान की। यद्यपि संविधान की समीक्षा की बात चलती रही लेकिन यह प्रक्रिया संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत द्वारा निर्धारित सीमाओं के परे नहीं जा सकती।
संविधान का निर्माण करते समय भारत के नेताओं और जनता के सामने एक साझे भविष्य की तस्वीर थी। नेहरू ने स्वतंत्रता के अवसर पर दिए एक प्रसिद्ध भाषण में इस सामूहिक स्वप्न को भाग्य के साथ करार बताया था। संविधान सभा के सदस्य भी इस आदर्श अर्थात् व्यक्ति की गरिमा और आज़ादी, सामाजिक-आर्थिक समानता, जनता की खुशहाली और राष्ट्रीय एकता में विश्वास करते थे। यह आदर्श आज भी धूमिल नहीं पड़ा है। यही कारण है कि आधी सदी गुजर जाने के बाद भी लोग संविधान का सम्मान करते हैं और उसे महत्त्व देते हैं। जनता की चेतना को निर्देशित करने वाले ये बुनियादी मूल्य आज भी उतने ही कारगर हैं।
भारतीय संविधान में मूल ढांचे की अवधारणा का प्रतिपादन सर्वप्रथम केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य वाद में 24 अप्रैल 1973 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया गया। न्यायालय ने इसे संकल्पना / विचार के दल रूप में प्रतिपादित किया न कि तथ्यात्मक रूप से और कहा कि विधायिका / कार्यपालिका ऐसे किसी कार्य को संपादित नहीं कर सकते जो मूल ढांचे का उल्लंघन करता हो। सामान्य रूप से संविधान में कुछ व्यवस्थाएं अन्य व्यवस्थाएं की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है उन्हीं के आधार पर राजनीतिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती है। ऐसी व्यवस्थाओं के समुच्चय को ही सामान्यतः मूल ढांचा कहा जाता है।
संविधान के आधारित संरचना से आशय उन ढाँचे से जो शासन-प्रशासन को संवैधानिक आधार प्रदान करता है। इनको अनु. 368 के अधीन शक्ति के प्रयोग द्वारा संशोधन नहीं किया जा सकता। इस सिद्धांत ने संविधान के विकास तथा सामाजिक स्वीकार्यता को काफी सुदृढ़ तथा व्यापक किया है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद. 1973 में इस सिद्धांत का विकास हुआ है। इसके निर्णय द्वारा संसद का संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमायें निर्धारित की गई है। यह संविधान के किसी या सभी भागों के संपूर्ण संशोधन (निर्धारित सीमाओं के भीतर ही) की अनुमति देता है. लेकिन यह संशोधनीय नहीं है। संविधान की मूल संरचना या ढांचे का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के बारे में न्यायपालिका का फैसला अंतिम होगा।
न्यायालय ने इस सिद्धांत की स्थापना के पीछे के कारणों को बताते हुए कहा कि संविधान की प्रस्तावना से स्पष्ट होता है कि संविधान कुछ मौलिक तत्वों पर आधारित है। अतः संशोधन द्वारा संविधान के इस अन्तर्निहित तत्वों को बदला नहीं जा सकता। यही कारण है कि संरचना के इन सिद्धांत को एक जीवंत संविधान का उदाहरण माना जाता है। संविधान मे इस अवधारणा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह एक ऐसा विचार है जो विधायिका. कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच हए संवैधानिक विवादों की न्यायिक व्याख्याओं से जन्मा है।
सभी जीवंत संविधान बहस, तर्क-वितर्क, प्रतिस्पर्धा और व्यवहारिक राजनीति की प्रक्रिया से ही गुजर कर विकसित होते है। एक अर्थ में, बुनियादी संरचना के सिद्धांत से संविधान की कठोरता और लचीलेपन का संतुलन और मजबूत हुआ है। संविधान के कुछ हिस्सों को संशोधन के दायरे से बाहर रखने और उसके कुछ हिस्सों को संशोधन प्रक्रिया के अंतर्गत लाने में कठोरता और लचीनेपन का संतुलन निश्चय ही स्पष्ट हुआ है। खंडपीठ ने यद्यपि कि मूल संरचना को न तो परिभाषित किया और न ही कोई निश्चित प्रावधान,, बल्कि अपने विभिन्न निर्णयों में कुछ ऐसे सिद्धांतों की रूपरेखा जरूर प्रस्तुत की है :-
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद, 1973 न्यायमूर्ति सीकरी द्वारा।
- संविधान की सर्वोच्चता।
- गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली
- संविधान का पंथनिरपेक्ष स्वरूप
- शक्तियों का पृथक्करण
- संविधान का संघात्मक स्वरूप
न्यायमूर्ति हेगड़े द्वारा
- भारत की सम्प्रभुता एवं एकता
- लोकतांत्रिक स्वरूप
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता
- कल्याणकारी राज्य एवं समतावादी समाज का निर्माण
राजनारायण बनाम श्रीमति इंदिरा गाँधी वाद, 1975 न्यायमूर्ति चंद्रचूढ़ द्वारा
- प्रतिष्ठा एवं अवसर की सामना
- पंथनिरपेक्ष एवं अंत:करण की स्वतंत्रता
- विधि का शासन
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ वाद, 1980 न्यायमूर्ति चंद्रचूढ़ द्वारा
- संसद की संशोधन की शक्ति
- न्यायिक समीक्षा
- मूल अधिकारों एवं नीति-निदेशक तत्वों के बीच संतुलन
पी. वी. नरसिम्हा राव, 1998 के बाद में न्यायमूर्ति अग्रवाल द्वारा
- संसदीय लोकतंत्र को भी मूल संरचना माना गया।
आलोचना के तत्त्व
- कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं और न ही स्पष्ट एवं निश्चित सूची है।
- इसमें विस्तार निरंतर जारी है।
- इसे उद्देशिका की ही पुनरावृत्ति माना गया।
न्यायाधीशों के मध्य इसमें परस्पर सहमति भी नहीं जैसे न्यायमूर्ति ने स्वतंत्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन को मूल संरचना नहीं माना जबकि न्यायमूर्ति खन्ना इसे मूल संरचना मानते है। न्यायमूर्ति चंद्रचूढ़ ने उद्देशिका को मूल संरचना के रूप में स्वीकार नहीं करते जबकि न्यायमूर्ति बंग ने कहा कि संवैधानिक विधिमान्यता की कसौटी को उद्देशिका में खोजा जा सकता है। व्यवहारिक स्तर पर समस्या यह हैं कि संसदीय व्यवस्था में संविधान के तहत संसद को एकता सम्प्रभुता के संबंध में निर्णय लेने तथा संधि एवं समझौता करने का अधिकार है। दूसरी ओर, 1960 के बेरूबारी यूनियन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह परामर्श दिया कि संविधान संशोधन किए बिना किसी विदेशी राज्य को भारत का कोई राज्य क्षेत्र अध्यर्पित नहीं किया जा सकता लेकिन भारत सरकार द्वारा श्रीलंका को कच्चातीवू और बांग्लादेश को तीन बीघा गलियारा हस्तांतरित कर दिया गया। समस्या यहाँ यह हैं कि एक तो इस विषय पर संविधान में संशोधन इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि भारत की एकता-अखड़ता एक मूल संरचना है। दूसरी ओर बिना संशोधन के भी ऐसा नहीं हो सकता। यहाँ एक आधारित संरचना दूसरे के विरूद्ध हो जाती है। संसद की संशोधन शक्ति एक आधारित संरचना है लेकिन वह आधारित संरचना में संशोधन नहीं कर सकता।
महत्व
- तत्कालीन परिस्थितियाँ-1971-75 के बीच के शक्ति केन्द्रीयकरण की स्थिति से बचाव हो पाएगा।
- संसद की संशोधनीय शक्ति तथा मौलिक अधिकार के बीच संतुलन का प्रयास किया गया।
- संसद की संशोधनीय शक्ति की स्वीकृति तथा असीमित एवं निरंकुश शक्ति को सीमित करने का प्रयास किया गया।
यही कारण है कि 2000 में गठित न्यायमूर्ति वैकटचैलेया की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा आयोग, जिसका उद्धेश्य संविधान के कामकाज की समीक्षा करना था, मूल संरचना में विश्वास जताया है। समीक्षा आयोग ने बहुत सारी सिफारिशें की है, लेकिन ऐसी एक भी सिफारिश नहीं की है। जिससे संविधान की मूल संरचना को चोट पहुँचती हो। आधारिक संरचना के सिद्धांत का इससे महत्व का पता चलता है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है, कि बुनियादी संरचना में कौन-कौन से तत्व निहित हैं, इस बात को लेकर अभी तक अनिर्णय एवं अनश्चितता की स्थिति बनी हुई है। इन बहसों के चलते रहने में कोई बुराई भी नहीं है। बहस एवं मतभेद किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति के अनिवार्य अंग होते है। और समझौते एवं आदान-प्रदान के बिना राजनीति चलती भी नही। सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सर्वोच्च होने की प्रतिद्वंद्विता हमेशा चलती रहेगी। जनकल्याण को लेकर भी उनके बीच द्वंद्व बना रहेगा। लेकिन अंततः निर्णय जनता को ही करना होता है। वस्तुत: लोकतंत्र का उद्देश्य ओर लोकतांत्रिक राजनीति का अंतिम लक्ष्य जनता की आजादी एवं खुशहाली ही है।
मूल सरंचना के तत्व
वर्तमान स्थिति यह है कि संसद अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान के किसी भी भाग, मौलिक अधिकारों सहित में संशोधन कर सकती है, बशर्ते कि इससे संविधान की। मूल संरचना' प्रभावित न हो। तथापि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह परिभाषित अथवा स्पष्ट किया जाना है कि 'मूल संरचना' के घटक कौन-से हैं। विभिन्न फैसलों के आधार पर निम्नलिखित की 'मूल संरचना' अथवा इसके तत्वों अवयवों/ घटकों के रूप में पहचान की जा सकती है:-
- संविधान की सर्वोच्चता
- भारतीय राजनीति की सार्वभौम, लोकतांत्रिक तथा
- गणराज्यात्मक प्रकृति
- संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
- विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच शक्ति का विभाजन
- संविधान का संघीय स्वरूप
- राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता
- कल्याणकारी राज्य (सामाजिक-आर्थिक न्याय)
- न्यायिक समीक्षा
- वैयक्तिक स्वतंत्रता एवं गरिमा
- संसदीय प्रणाली
- कानून का शासन
- मौलिक अधिकारों तथा नीति-निदेशक सिद्धांतों के बीच सौहार्द और संतुलन
- समत्व का सिद्धांत
- स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- संविधान संशोधन की संसद की सीमित शक्ति
- न्याय तक प्रभावकारी पहुँच
- मौलिक अधिकारों के आधारभूत सिद्धांत (या सारतत्व)
- अनुच्छेद 32, 136, 141 तथा 1426 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त शक्तियाँ,
- अनुच्छेद 226 तथा 227 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों की शक्ति
मूल संरचना का प्रादुर्भाव
संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है या नहीं, यह विषय संविधान लागू होने के एक वर्ष पश्चात् ही सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचारार्थ आया। शंकरी प्रसाद मामले' (1951) में पहले संशोधन अधिनियम (1951) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई जिसमें सम्पत्ति के अधिकार में कटौती की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संसद में अनुच्छेद 368 में संशोधन की शक्ति के अंतर्गत ही मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति अंतर्निहित है। अनुच्छेद-13 में 'विधि' (law) शब्द के अंतर्गत मात्र सामान्य विधियाँ (कानून) ही आती हैं, संवैधानिक संशोधन अधिनियम (संवैधानिक नियम) नहीं। इसलिए संसद संविधान संशोधन अधिनियम पारित कराकर भौतिक अधिकारों को संक्षिप्त कर सकती है अथवा किसी मौलिक अधिकार को वापस ले सकती है।
लेकिन गोलकनाथ मामले (1967) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी पहले वाली स्थिति बदल ली। इस मामले में सत्रहवें संशोधन अधिनियम (1964) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी, जिसमें 9वीं अनुसूची में राज्य द्वारा की जाने वाली कुछ कार्यवाहियों को जोड दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि मौलिक अधिकारों को लोकोत्तर (transcendental) तथा अपरिवर्तनीय (immutable) स्थान प्राप्त aहै, इसीलिए संसद मौलिक अधिकारों में न तो कटौती कर सकती है, न किसी भौतिक अधिकार को वापस ले सकती है। संवैधानिक संशोधन अधिनियम की अनुच्छेद 13 के आशयों के अंतर्गत एक कानून है, और इसीलिए किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने में सक्षम नहीं है।
गोलकनाथ मामले (1967) में सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की प्रतिक्रिया में संसद ने 24वाँ संशोधन अधिनियम (1971) अधिनियमित किया। इस अधिनियम ने अनुच्छेद 13 तथा 368 में संशोधन कर दिया और घोषित किया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद को मौलिक अधिकारों को सीमित करने अथवा किसी मौलिक अधिकार को वापस लेने की शक्ति है, और ऐसा अधिनियम अनुच्छेद 13 के आशयों के अंतर्गत एक कानून नहीं माना जाएगा।
केशवानंद भारती मामले' (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में अपने निर्णय को प्रत्यादिष्ट (overrule) कर दिया। इसने 24वें संशोधन अधिनियम (1971 की वैधता को बहाल रखा और व्यवस्था दी कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित कर सकती है, अथवा किसी अधिकार को वापस ले सकती है। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने एक नया सिद्धांत दिया- संविधान की मूल संरचना (basic structure) का। इसने व्यवस्था दी कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद के संवैधानिक अधिकार उसे संविधान की मूल संरचना को ही बदलने की शक्ति नहीं देते। इसका अर्थ यह हुआ कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती अथवा वैसे मौलिक अधिकारों को वापस नहीं ले सकती जो संविधान की मूल संरचना से जुड़े हैं।
संविधान के मूलभूत ढांचे के सिद्धांत की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इंदिरा नेहरू गांधी मामले (1975) में पुनः पुष्टि की गई। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 39वें संशोधन अधिनियम (1975) के एक प्रावधान को रद्द कर दिया, जिसमें प्रधानमंत्री एवं लोकसभा अध्यक्ष से सम्बन्धित चुनावी विवादों को सभी न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से बाहर कर दिया था। न्यायालय ने कहा कि, यह प्रावधान संसद की संशोधनकारी शक्ति के बाहर है क्योंकि यह संविधान के मूलभूत ढांचे पर चोट करता है।
पुनः न्यायपालिका द्वारा नव-आविष्कृत इस 'मूल संरचना' के सिद्धांत की प्रतिक्रिया में संसद ने 42वाँ संशोधन अधिनियम पारित कर दिया। इस अधिनियम ने अनुच्छेद 368 को संशोधित कर यह घोषित किया कि संसद की विधायी शक्तियों की कोई सीमा नहीं है और किसी भी संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती- किसी भी आधार पर, चाहे वह मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का ही क्यों न हो।
हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने मिनर्वा मिल मामले' (1980) में इस प्रावधान को अमान्य कर दिया क्योंकि इसमें न्यायिक समीक्षा के लिए कोई स्थान नहीं था, जो कि संविधान की 'मूल विशेषता' है। अनुच्छेद 368 से सम्बन्धित इस 'मूल संरचना' के सिद्धांत को इस मामले पर लागू करते हुए न्यायालय ने व्यवस्था दीः
"चूँकि संविधान ने संसद को सीमित संशोधनकारी शक्ति दी है, इसलिए उस शक्ति का उपयोग करते हुए संसद इसे चरम अथवा निरंकुश सीमा तक नहीं बढ़ा सकती। वास्तव में सीमित संसद को संशोधनकारी शक्ति संविधान की मूल विशेषताओं में से एक है, अत: इस शक्ति की सीमाबद्धता को नष्ट नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में संसद, अनुच्छेद 368 के अंतर्गत, अपनी संशोधनकारी शक्ति को विस्तारित कर निरस्त करने का अधिकार हासिल नहीं कर सकती, अथवा संविधान को रद्द अथवा इसकी मूल विशेषताओं को नष्ट नहीं कर सकती। सीमित शक्ति का आदाता (उपभोगकर्ता) उस शक्ति का उपयोग करते हुए सीमित शक्ति को असीमित शक्ति में नहीं बदल सकता।"
पुनः वामन राव मामले (1981) में सर्वोच्च न्यायालय ने मूल संरचना' के सिद्धांत को मानते हुए स्पष्ट किया कि यह 24 अप्रैल, 1973 (अर्थात्, केशवानंद भारती मामले में फैशन के दिन) के बाद अधिनियमित संविधान संशोधनों पर लागू होगा।
मुकदमे का नाम (वर्ष) | मूलभूत ढांचे के तत्व (सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित) |
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केशवानंद भारती मामला' (1973) (मौलिक अधिकार मामला के नाम से विख्यात | 1. संविधान की सर्वोच्चता 2. विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्ति का बंटवारा 3. गणराज्यात्मक एवं लोकतान्त्रिक स्वरूप वाली सरकार 4. संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र 5. संविधान का संघीय चरित्र 6. भारत की संप्रभुता एवं एकता 7. व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा 8. एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का जनादेश 9. संसदीय प्रणाली |
इंदिरा नेहरू गांधी मामला (1975) (चुनावी मामला के नाम से विख्यात) | 1. भारत एक संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य 2. व्यक्ति की प्रस्थिति एवं अवसर की समानता 3. धर्मनिरपेक्षता तथा आस्था एवं धर्म की स्वतंत्रता 4. कानून की सरकार, लोगों की सरकार नहीं (अर्थात् कानून का शासन) 5. न्यायिक समीक्षा 6. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव जो लोकतंत्र में अंतर्निहित हैं। |
मिनर्वा मिल्स मामला' (1980) | 1. संसद की संविधान संशोधन की सीमित शक्ति 2. न्यायिक समीक्षा 3. मौलिक अधिकारों एवं नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच सौहार्द एवं संतुलन |
सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड मामला' (1980) | न्याय तक प्रभावी पहुंच |
भीमसिंह जी मामला' (1981) | कल्याणकारी राज्य (सामाजिक-आर्थिक न्याय) |
एस.पी. सम्पथ कुमार मामला" (1987) | 1. कानून का शासन 2. न्यायिक समीक्षा |
पी. सम्बामूर्ति मामला' (1987) | 1. कानून का शासन 2. न्यायिक समीक्षा |
दिल्ली ज्युडीशियल सर्विस एसोसिएशन मामला? (1991) | अनुच्छेद 32, 136, 141 तथा 142 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति |
इंद्रा साहसी मामला' (1992) (मंडल मामले के रूप में चर्चित) | कानून का शासन |
कुमार पद्म प्रसाद मामला (1992) | न्यायपालिका की स्वतंत्रता |
किहोतो होलोहोन मामला' (1993) (दलबदल मामले के रूप में चर्चित) | 1. स्वतंत्र निष्पक्ष चुनाव 2. संप्रभु, लोकतंत्रात्मक , गणराज्यात्मक ढांचा |
रघुनाथ राव मामला' (1993) | 1. समानता का सिद्धांत 2. भारत की एकता एवं अखंडता |
एस.आर. बोम्मई मामला'' (1994) | 1. संघवाद 2. धर्मनिरपेक्षता 3. लोकतंत्र 4. राष्ट्र की एकता एवं अखंडता 5. सामाजिक न्याय 6. न्यायिक समीक्षा |
एल. चंद्रकुमार मामला (1997) | उच्च न्यायालयों की अनुच्छेद 226 एवं 227 के अंतर्गत शक्तियां |
इंद्रा साहनी मामला' (2000) | समानता का सिद्धांत |
ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन मामला (2002) | स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली |
कुलदीप नायर भामला! (2006) | 1. लोकतंत्र 2. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव |
एम. नागराज मामला' (2006) | समानता का सिद्धांत |
आई.आर. कोएल्हो मामला' (2007) (नवीं अनुसूची मामले के रूप में चर्चित) | 1. कानून का शासन 2. शक्तियों का बंटवारा 3. मौलिक अधिकारों के आधारभूत सिद्धांत 4. न्यायिक समीक्षा 5. समानता का सिद्धांत |
राम जेठमलानी मामला (2011) | अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां |
नमित शर्मा मामला- (2013) | व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा |
मद्रास कर एसोसिएशन मामला (2014) | 1. न्यायिक समीक्षा 2. अनुच्छेद 226 एवं 227 के अंतर्गत उच्च न्यायालय की शक्तियां |
निष्कर्ष
बुनियादी संरचना में कौन-कौन से तत्त्व निहित हैं- इस बात को लेकर अभी तक अनिर्णय की स्थिति बनी हुई है। इन बहसों के चलते रहने में कोई बुराई नहीं है। हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि बहस और मतभेद लोकतांत्रिक राजनीति के अनिवार्य अंग होते हैं। साथ ही हमारे राजनैतिक दलों और नेतृत्त्व ने भी इन बहसों के मामले में परिपक्वता का परिचय दिया है। उन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि राजनीतिक प्रश्नों से जुड़ी बहस और तर्क-वितर्क मार्यादा के बाहर न जाए। समझौतों और आदान-प्रदान के बिना राजनीति नहीं चलती। अतिवादी रूख अपनाना सैद्धांतिक दृष्टि से ठीक हो सकता है, वैचारिक स्तर पर ऐसा करना काफी आकर्षक भी दिखता है। लेकिन, राजनीति में सभी पक्षों को अपने अतिवादी विचारों और नज़रिए को छोड़कर एक न्यूनतम साझी समझ विकसित करनी पड़ती है। इसके बिना लोकतांत्रिक राजनीति आगे नहीं बढ़ सकती। हमारे यहाँ की जनता और राजनीतिज्ञों ने इन बातों को भली-भाँति समझा है। इसी मर्यादित व्यवहार के कारण हमारा लोकतांत्रिक संविधान सफल रहा है। सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सर्वोच्च होने की प्रतिद्वंद्विता हमेशा चलती रहेगी। जनकल्याण के अभिप्राय को लेकर भी उनके बीच द्वंद्व बना रहेगा। लेकिन अंततः निर्णय जनता के हाथों में ही रहता है। वस्तुतः लोकतंत्र का उद्देश्य और लोकतांत्रिक राजनीति का अंतिम लक्ष्य जनता की आज़ादी और खुशहाली है।
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