विमुद्रीकरण क्या है?
किसी अर्थव्यवस्था में चल रही मुद्रा को बंद करके नई मुद्रा जारी कर दी जाये तो इसे विमुद्रीकरण कहते हैं। 8 नवम्बर, 2016 को आर.बी.आई. की सहमति से भारत सरकार ने यह घोषणा की के 500 रू. और 1000 रू. के बैंक नोटों को अब कानूनी रूप से अवैध माना जाएगा।
अर्थशास्त्र के अध्ययन के अंतर्गत किसी भी सीरीज एवं मूल्यवर्ग की मुद्राओं के अवैधीकरण की इस क्रिया को 'विमुद्रीकरण' कहा जाता है, जिसमें सरकार किसी मुद्रा (करेंसी) की वैधता को अमान्य घोषित कर देती है। सामान्यतः ऐसा पुरानी मुद्राओं की जगह नई मुद्राओं को प्रचलन में लाने के लिये किया जाता है। सरकार ने इस फैसले को आजादी के बाद सबसे बड़े आर्थिक सुधारों में से एक बताते हुए इसे काला धन, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, जाली नोट आदि समस्याओं पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' करार दिया, वहीं विपक्षी दलों और कई बड़े अर्थशास्त्रियों ने विमुद्रीकरण को एक गैर-जरूरी व आमजन के लिये आपदा लाने वाला कदम बताया।
लाभ
- कालेधन पर रोक
- भ्रष्टाचार पर अंकुश
- आतंकवाद पर प्रहार
- जाली नोटों पर रोक
- महंगाई में कमी
- बैंकिंग क्षेत्र की तरलता में कमी
हानियाँ
- नकदी का संकट
- लघु एवं मध्यम उद्योगों को हतोत्साहन असंगठित क्षेत्र पर कुठाराघात
- निर्माण एवं विनिर्माण उद्योगों पर नकरात्मक असर
- अन्य आर्थिक सुधारों पर नकारात्मक असर
विमुद्रीकरण के सकारात्मक परिणाम
विमुद्रीकरण को अपने अपेक्षित लक्ष्यों की दिशा में पूर्ण रूप से सफल तो नहीं कहा जा सकता, परंतु इतना अवश्य है कि इस कदम ने भारतीय अर्थव्यवस्था को कई सकारात्मक परिणाम दिये-
- बैंकिंग क्षेत्र की तरलता में वृद्धि :- इसका सर्वप्रथम प्रत्यक्ष लाभ यह हुआ कि इससे गैर-निष्पादित परिसम्पत्तियों (एनपीए) के उच्चतम स्तर और ऋण देने हेतु अनुपलब्ध धनराशि की गंभीर समस्या झेल रहे बैंकिंग तंत्र को बड़ी मात्रा में नकदी प्राप्त हुई जिससे उसकी मौद्रिक तरलता में वृद्धि हुई। बैंकों की मौद्रिक तरलता में हुई यह अभूतपूर्व वृद्धि अर्थव्यवस्था को कई तरीकों से लाभान्वित करेगी। इसका पहला बड़ा प्रभाव यह होगा कि बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋणों पर ब्याज की दरों में कमी आएगी। यह प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से दिखना भी शुरू हो गया, जब नए वर्ष में प्रवेश के साथ ही लगभग सभी बैंकों ने अपनी ऋण ब्याज दरों को घटा दिया। इसके साथ ही अब यह भी तय है कि बैंकों में बढ़ी हुई मौद्रिक तरलता और घटी हुई ब्याज दरों के कारण ऋणापूर्ति और निवेश में वृद्धि होगी जिससे वित्त की कमी के कारण लंबित परियोजनाओं को गति मिल सकेगी, बुनियादी ढाँचे के क्षेत्र में नई परियोजनाएँ शुरू की जा सकेंगी और विशाल भारतीय उपभोक्ता बाजार के मांग पक्ष में वृद्धि आएगी। इस सबसे आय का एक सुचक्र स्थापित होगा जो कि आर्थिक संवृद्धि में सहायक होगा।
- मंहगाई में कमीः विमुद्रीकरण का दूसरा महत्वपूर्ण लाभ यह हुआ कि बाजार में नकदी के अभाव के कारण मांग में कमी दर्ज की गई जिससे महँगाई में कमी आई। दिसम्बर, 2016 में खुदरा महँगाई दर घटकर 3.41 फीसद पर आ गई।
- राजस्व संग्रह में वृद्धिः विमुद्रीकरण का तीसरा और बड़ा प्रभाव यह रहा कि इस कदम ने सरकार के राजस्व संग्रह में उल्लेखनीय वृद्धि की। वित्तमंत्री द्वारा पेश किये गए आँकड़ों के अनुसार दिसम्बर महीने में उत्पाद शुल्क में 31.6 फीसद और सेवा कर संग्रह में 12.4 फीसदी वृद्धि हुई है। बढ़ा हुआ राजस्व निस्संदेह सरकार के वित्त प्रबंधन को लाभ पहुँचाएगा।
- वित्तीय क्षेत्र में डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा:- विमुद्रीकरण का चौथा और सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह हुआ कि इससे वित्तीय क्षेत्र में डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा मिला। उपभोक्ताओं में डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड, ई-वॉलेट जैसे भुगतान माध्यमों द्वारा भुगतान करने की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ। बढ़ती हुई डिजिटल लेन-देन की प्रवृत्ति वित्तीय तंत्र में पारदर्शिता लाएगी। साथ ही, यह लोगों को कैश लेकर चलने में होने वाली असुविधा से मुक्ति दिलाएगी। विमुद्रीकरण के बाद यदि आरबीआई के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव की प्रतिक्रिया पर गौर किया जाए तो यह भी पता चलता कि, विमुद्रीकरण से उपरोक्त लाभ अपेक्षित भी थे। अपनी प्रतिक्रिया में डी. सुब्बाराव ने कहा था कि विमुद्रीकरण अपने अन्य लाभों के साथ-साथ निवेश में वृद्धि के लिये सकारात्मक माहौल पैदा करेगा, अपने परिणाम में यह महँगाई में कमी लाएगा और यह सघन कैश (Cash Intensive) अर्थव्यवस्था को कैश लेस अर्थव्यवस्था की ओर ले जाएगा।
विमुद्रीकरण के नकारात्मक परिणाम
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में विमुद्रीकरण के कई सकारात्मक परिणाम सामने आए, परंतु सरकार की ओर से एकाएक अमल में लाई गई विमुद्रीकरण की इस प्रक्रिया ने सम्पूर्ण भारतीय आर्थिक परिदृश्य को आमूल-चूल रूप से प्रभावित भी किया। विमुद्रीकरण के इस कदम से कई नकारात्मक परिणाम भी सामने आए-
- नकदी का गंभीर संकट :- विमुद्रीकरण के कारण अर्थव्यवस्था में नकदी का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया। एक अनुमान के मुताबिक, विमुद्रीकरण से पूर्व जितनी करेंसी प्रचलन में थी उसमें 500 और 1000 के नोटों का हिस्सा लगभग 86 प्रतिशत था। ऐसे में एकाएक 500 और 1000 रूपए के नोटों का प्रचलन रोके जाने पर व्यापक कठिनाइयाँ आनी स्वाभाविक थीं, और वे आई भी। आरबीआई द्वारा नए नोटों की मांग से कम निर्गमन, कमजोर व सीमित बैंकिंग ढाँचा और बैंक के कुछ अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा किये गए भ्रष्टाचार के कारण नकदी का संकट विकराल होता चला गया। बुजुर्ग, महिला, दिव्यांग जन, बीमार तथा ऐसे लोग जिनके यहाँ किसी प्रकार का कोई सामाजिक-धार्मिक आयोजन था, को नकदी के संकट के कारण सबसे अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
- संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र और अधिक संकटग्रस्त बना :- विमुद्रीकरण का दूसरा नकारात्मक परिणाम यह हुआ कि इसने पहले से ही संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र को और अधिक संकटग्रस्त बना दिया। विमुद्रीकरण ऐसे समय में किया गया जब किसान रबी फसलों की बुआई करते हैं, नकदी के संकट और वित्तीय तंत्र के गैर-समावेशी (Non-Inclusive) ढाँचे ने कृषकों के सम्मुख बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि की अनुपलब्धता उत्पन्न कर दी। कृषि भारत की जीवन रेखा है, ऐसे में कृषि क्षेत्र में उत्पन्न कोई भी संकट अंततः समूचे आर्थिक तंत्र को प्रभावित करता है।
- विनिर्माण एवं लघु तथा मध्यम उद्योगों को हतोत्साहन :- विमुद्रीकरण का तीसरा नकारात्मक परिणाम यह देखा जा रहा है कि इससे कृषि के साथ-साथ निर्माण व विनिर्माण क्षेत्र में भी संकट उत्पन्न हो गया है। खासकर, लघु व मध्यम उद्योगों के लिये विमुद्रीकरण गहरा संकट लेकर आया। दरअसल, इन क्षेत्रों में अधिकतर लेन-देन नकद में होता है, अतः नकदी के अभाव के कारण इन क्षेत्रों के पहिए थम-से गए। जब भारत के व्यापार आँकड़े उत्साहित करने वाले नहीं थे, औद्योगिक उत्पादन सिकुड़ रहा था और रोजगार क्षेत्र में अवसरों का अभाव दिख रहा था, ऐसे समय में विमुद्रीकरण की नीति ने देश की अर्थव्यवस्था को बहुत हद तक नकारात्मक दिशा में मोड़ दिया।
- असंगठित क्षेत्र में आपदा की स्थिति :- चौथा गंभीर परिणाम यह रहा कि इसने अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में आपदा जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी । भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र का हिस्सा 90 प्रतिशत से अधिक है, जिसमें कार्यरत कामगार वर्ग अपनी मजदूरी या वेतन नकदी में प्राप्त करता है, ऐसे में एकाएक उपजे नकदी संकट ने इन्हें अत्यधिक प्रभावित किया। इसका प्रभाव इस स्तर तक देखा गया कि महानगरों व उनके उपनगरों तथा बड़े शहरों में रेहड़ी-पटरी वाले, छोटे-मोटे व्यापार करने वाले तथा दैनिक मजदूर अपने गाँव लौटने को विवश हो गए।
- श्रम, भूमि व कर संबंधी आर्थिक सुधारों के अधर में लटकाना :- विमुद्रीकरण का पाँचवा बड़ा नकारात्मक प्रभाव यह रहा कि इसने श्रम, भूमि व कर संबंधी आर्थिक सुधारों को अधर में लटका दिया क्योंकि सरकार के लिये भी यह मुमकिन नहीं है कि वह एक साथ कई आर्थिक सुधारों को गति दे सके। इस संदर्भ में जो तात्कालिक नकारात्मक असर की संभावना दिख रही है, वह है बहुप्रतीक्षित जीएसटी का अधर में लटकना। दरअसल, राज्यों का तर्क है कि विमुद्रीकरण से उन्हें राजस्व की हानि उठानी पड़ी है, ऐसे में जीएसटी के अंतर्गत राज्यों के लिये निर्धारित क्षतिपूर्ति की राशि बढ़ाई जाए, लेकिन केन्द्र इस मांग से सहमत नहीं है। ऐसी स्थिति में जीएसटी को 1 अप्रैल, 2017 की प्रस्तावित तारीख से है। विश्व बैंक ने भी अपनी रिपोर्ट में यह स्वीकार किया है कि लागू कर पाना अब संभव नहीं प्रतीत हो रहा विमुद्रीकरण आर्थिक सुधारों की गति को बाधित करेगा।
- आरबीआई, मुद्रा और बैंकिंग प्रणाली के प्रति देश के लोगों का विश्वास में कमी:- इससे अतिरिक्त, अंतिम और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि विमुद्रीकरण से आरबीआई, मुद्रा और बैंकिंग प्रणाली के प्रति देश के लोगों का विश्वास कम हुआ है। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी यह बात स्वीकारते हुए अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि 'विमुद्रीकरण आपदा लाने वाला एक निरंकुश फैसला है और इसने विश्वास पर खड़ी अर्थव्यवस्था की जड़ पर प्रहार किया है।'
नोटबंदी के उद्देश्यों की समीक्षा और आगे की राह
विमुद्रीकरण को एक वर्ष हो जाने के बाद यह जरूरी है कि इस बात की गहन समीक्षा की जाए कि विमुद्रीकरण के उद्देश्यों का आधार क्या था और अब आगे ऐसे कौन-से प्रावधान किये जाएँ ताकि इन उद्देश्यों को साधा जा सके। अगर उद्देश्यों की क्रमवार चर्चा करें तो सर्वप्रथम हम देखते हैं कि सरकार ने विमुद्रीकरण को आजादी के बाद काले धन के खिलाफ सबसे बड़ा कदम बताया है। सरकार के इस दावे की मुख्यतः दो वजहें थीं-
एक तो यह कि सरकार को अनुमान था कि अभी अर्थव्यवस्था में जो काला धन है, विमुद्रीकरण के कारण वह बैंकिंग तंत्र में वापस नहीं आएगा।
दूसरी यह कि यदि काला धन बैंकिंग तंत्र में वापस आता भी है तो वह या तो कर अधिकारियों द्वारा पता लगा लिया जाएगा या जमाकर्त्ता स्वयं अपने काले धन की घोषणा कर देगा। इस अनुमान को ध्यान में रखकर ही 'प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना' लाई गई। इस योजना के तहत यदि कोई व्यक्ति अपनी अघोषित आय का खुलासा करता है तो उसे 50 फीसद टैक्स और जुर्माना अदा करना होगा और साथ में एक शर्त यह भी है कि उसके बकाए की 25 फीसदी रकम 4 साल के लिसे बैंक में ही जमा रहेगी जिस पर कोई ब्याज नहीं मिलेगा। अब, यक्ष प्रश्न यह है कि सरकार के ये अनुमान कितने सही साबित हुए?
I. विमुद्रीकरण को काले धन पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' बताकर सरकार अपनी सफलता घोषित कर रही है, वहीं विमुद्रीकरण के विरोधी और कई अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकार यह समझने की भूल कर रही है कि सारा काला धन कैश में है। अगर आँकड़ों पर गौर करें तो आलोचकों का मत सही भी प्रतीत होता है क्योंकि अनुमानतः केवल 6 प्रतिशत काला धन ही कैश में है, बाकी सोना, बेनामी सम्पत्ति और शेयर के रूप में है। नोबेल विजेता अर्थशास्त्री जीन तिरोल का भी मत यही है कि 'विमुद्रीकरण से काला धन समाप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि पैसा पहले ही रियल एस्टेट, सोना आदि क्षेत्रों में निवेश किया जा चुका होता है। हालाँकि, इतना जरूर है कि सरकार के इस कदम से भविष्य में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। '
विवाद से आगे अगर समाधान की बात करें, तो सबसे जरूरी यह है कि सरकार को 'ब्लैक इकॉनमी', 'ब्लैक कैश' के अंतर को समझना होगा। विमुद्रीकरण अधिकतम 'ब्लैक कैश' की समस्या से तो निजात दिला सकता है लेकिन 'ब्लैक मनी' और 'ब्लैक इकॉनमी' के जंजाल से मुक्ति के लिये अभी कई कदम उठाए जाने बाकी हैं। मसलन, अब आगे के कदम में यह अति आवश्यक होगा कि सरकार बेनामी सम्पत्तियों पर चोट करें। यह सर्वस्वीकार्य है कि ज्यादातर अघोषित आय धारकों ने अपने करीबियों या किसी अन्य के नाम पर प्रॉपर्टी खरीदकर अपना काला धन खपाया है, अतः सरकार को यथाशीघ्र इस दिशा में गंभीर कार्रवाई करनी चाहिये।
- रियल एस्टेट क्षेत्र को पारदर्शी बनाने के लिये भी आवश्यक कदम उठाए जाने की आवश्यकता है क्योंकि यह क्षेत्र काले धन के उपयोग का सबसे सुरक्षित क्षेत्र माना जाता है।
- शेयर बाजार नियामक संस्था सेबी की स्वायत्तता और शक्तियों में और वृद्धि की जानी चाहिये जिससे शेयर बाजार में काला धन जमा न हो सके।
- इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कर ढाँचे को सरल व प्रगतिशील बनाने की दिशा में सरकार को आवश्यक कदम उठाने चाहियें क्योंकि इसकी जटिलता काले धन की उत्पत्ति का एक बड़ा कारण है।
II. अब बात करते हैं सरकार के दूसरे मुख्य उद्देश्य यानी भ्रष्टाचार की। सरकार का तर्क है कि अर्थव्यवस्था में बड़े नोटों की अधिक संख्या भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं तर्क के आधार पर सरकार का मत सही भी है, लेकिन समस्या यह है कि बड़े नोटों के दुष्प्रभावों को जानते हुए भी सरकार ने आरबीआई को दो हजार के नए नोटों के निर्गमन की अनुमति किस आधार पर प्रदान की? और दूसरी बात यह भी है कि क्या बड़े नोटों का प्रचलन ही भ्रष्टाचार की मुख्य वजह है? यह सच है कि भ्रष्टाचार भारतीय आर्थिक तंत्र को दीमक की तरह चाट रहा है। ऐसे में, भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिये भ्रष्टाचार पर नकेल कसना जरूरी होगा। भ्रष्टाचार जैसी जटिल समस्या से लड़ने के लिये सरकार द्वारा उठाए गए ये कदम कितने सफल साबित होंगे, इस पर संदेह है। अतः यदि इस समस्या का वास्तविक समाधान खोजना है तो इसके विरूद्ध प्रयास भी चौतरफा करने होंगे। कुछ मुख्य उपाय जो किये जा सकते हैं, वे ये हैं-
- दो हजार के नए नोटों को सीमित संख्या में ही निर्गमित किया जाए।
- सभी सरकारी वित्तीय आवंटन व नीलामी को ऑनलाइन किया जाए।
- नौकरशाही के विवेकाधिकारों में कमी की जाए।
- तंत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप को न्यूनतम किया जाए और लंबित पड़े चुनावी सुधारों को अविलंब पूरा किया जाए।
- इस सबके अतिरिक्त, सबसे जरूरी है कि सूचना के अधिकार के कानून को और अधिक प्रभावी बनाकर तथा लोकपाल व लोकायुक्तों की नियुक्ति एवं कार्यसंरचना को प्रभावशाली बनाकर भ्रष्टाचार पर कड़ी चोट की जाए। सरकारों के भ्रष्टाचार के विरूद्ध बड़ी लड़ाई के दावे के विपरीत यह बात चिंताजनक है कि सूचना आयुक्तों के एक चौथाई पद खाली पड़े हैं और अभी तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो पाई है।
III. विमुद्रीकरण का तीसरा बड़ा उद्देश्य आतंकवाद, उग्रवाद, अलगाववाद और नक्सलवाद से लड़ना है। तात्कालिक तौर पर देखें तो यह उद्देश्य बहुत हद तक सफल होता मालूम भी पड़ता है, क्योंकि एकाएक विमुद्रीकरण के फैसले से इन सभी के आर्थिक संसाधन समाप्त से हो गए। हालिया वक्त में आतंकवादी, उग्रवादी और नक्सलवादी घटनाओं, उग्रवादी और नक्सलवादी घटनाओं में आई कमी इस मत को पुष्ट भी करती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि विमुद्रीकरण इन बड़ी समस्याओं का कोई स्थायी समाधान नहीं है, अतः सरकार को कुछ ऐसे उपाय अपनाने होंगे जिससे इन गतिविधियों में शामिल लोग विमुद्रीकरण से हुए नुकसान की भरपाई न कर सकें। इस संबंध में कुछ मुख्य उपाय ये हो सकते हैं
सरकार इन गतिविधियों से प्रभावित क्षेत्रों में विकास की प्रक्रिया को बढ़ावा दे।
कानून व्यवस्था को बेहतर बनाए।
स्थानीय लोगों का विश्वास हासिल करे और ऐसी गतिविधियों में शामिल लोगों एवं संगठनों के आर्थिक तंत्र या संसाधनों को पुनर्जीवित न होने दे।
IV. विमुद्रीकरण का चौथा व महत्वपूर्ण उद्देश्य है- जाली नोटों का खात्मा करना। यह बात सही भी है कि 500 और 1000 के नोटों को 8 नवम्बर, 2016 के बाद वैध नहीं माने जाने की घोषणा से 500 से 1000 के जाली नोट कागज के टुकड़े मात्र रह गए, लेकिन विमुद्रीकरण के कारण नए नोटों के निर्गमन में होने वाले व्यय से अर्थव्यवस्था में मौजूद जाली नोटों के कुल अंकित मूल्य की तुलना करें तो यह उपलब्धि निराश करती है। अगस्त 2015 में राज्य सभा में सरकार की ओर से एक लिखित उत्तर में बताया गया है कि भारत में 'फेक करेंसी' नोट का अंकित मूल्य करीब 400 करोड़ है और यह मूल्य चार वर्षों से लगभग स्थिर है, जबकि नए नोटों के निर्गमन का कुल खर्च 12000 करोड़ से 15000 करोड़ तक अनुमानित है। सबसे ज्यादा निराश करने वाली बात यह रही कि नए नोटों के निर्गमन के तुरंत बाद से ही 2000 के नकली नोट मिलने की खबरें आने लगीं, जिससे पता चलता है कि जारी किये गए नए नोटों में सुरक्षा उपायों से समझौता किया गया है। अब जरूरत इस बात की है कि नए नोटों के सुरक्षा उपाय बेहतर किये जाएँ और जाली नोटों के अन्य सभी उद्गम स्रोतों को बंद करने की दिशा में प्रभावी कोशिश की जाए।
V. विमुद्रीकरण का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य है- भारतीय अर्थव्यवस्था को कैशलेस बनाना। कई विकसित व विकासशील देशों के मुकाबले भारतीय अर्थव्यवस्था में कैश पर लोगों की निर्भरता ज्यादा है जो कि बहुत फायदेमंद प्रवृत्ति नहीं मानी जाती है। कैशलेस अर्थव्यवस्था के कई फायदे हैं, यथा-कैश लेकर चलने से जुड़ी असुविधाओं से मुक्ति मिलेगी, बैंकिंग सहित वित्तीय तंत्र की परिचालन लागत में कमी आएगी, काले धन का सृजन मुश्किल हो जाएगा, तंत्र में पारदर्शिता बढ़ेगी। हालाँकि, इसकी चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं, क्योंकि भारत जैसे देश में जहाँ जनसंख्या का एक बड़ा भाग बैंकिंग प्रक्रिया से जुड़ा ही नहीं है, वित्तीय संस्थाओं का बुनियादी ढाँचा गैर-समावेशी है और जनसंख्या के एक चौथाई लोग निरक्षर हैं, वहाँ कैशलेस इकॉनमी की बात करना एक तरीके से बेमानी है। साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि भारत डिजिटल सुरक्षा के मामले में अभी काफी पीछे है जिससे हर वक्त निजी सूचनाओं या डेटा के चोरी होने का डर बना रहता है। ऐसे में बेहतर समाधान यही होगा कि सरकार 'कैशलेस इकॉनमी' के बजाय 'लेस कैश इकॉनमी' बनाने पर जोर दे। इसके तहत सरकार व्यापक स्तर पर डिजिटल साक्षरता को बढ़ाने के उपाय अपनाए और डिजिटल सुरक्षा को सशक्त बनाने का हरसंभव उपाय करें। लोगों में कैशलेस भुगतान के बारे में जागरूकता फैलाई जाए और उन्हें इसके फायदे से अवगत कराया जाए। इस दिशा में सरकार की 'लकी ग्राहक योजना' और 'डिजिधन व्यापार योजना' की पहल उल्लेखनीय है जो निश्चित तौर पर डिजिटल भुगतान को प्रोत्साहित करेगी।
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