वैश्वीकरण
वैश्वीकरण से तात्पर्य बिना किसी बाधा के एक देश से अन्य देशों के साथ वस्तु, सेवा, पूंजी, तथा श्रम का मुक्त प्रवाह होने से है अर्थात् जब कोई राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्था को शेष विश्व के लिए खोलता है, तो इसे ही वैश्वीकरण कहा जाता है। इससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, तकनीकी सेवाएं, पूंजी आदि का मुक्त प्रवाह बिना किसी सरकारी बाधा के होने लगता है। परिणामस्वरूप देश में विदेशी निवेश बढ़ने लगता है और इससे देश के औद्योगिकीकरण में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का योगदान बढ़ने लगता है।
वैश्वीकरण से तात्पर्य केवल यह ही नहीं है कि वस्तु, सेवा और पूंजी का मुक्त प्रवाह हो अपितु पूर्ण वैश्वीकरण तभी माना जाएगा। जब श्रमिकों का एक देश से दूसरे देश में मुक्त प्रवाह होने लगे अर्थात् वैश्वीकरण सभी प्रकार के संरक्षणों का विरोध करता है और यह पूरे विश्व को एक ग्लोबल विलेज के रूप में परिभाषित करता है।
जहाँ दुनिया की सभी भौतिक सुख सुविधाएं प्रत्येक वैश्विक नागरिक को उसके राष्ट्र में मिल सके- वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है। वैश्वीकरण मुक्त अर्थव्यवस्था पर बल देता है जिससे निम्न लिखित लाभ होते है-
1. तस्करी की समस्या की समाप्ति:- वैश्वीकरण के कारण दुनिया की कोई भी वस्तु, सुख-सुविधा सभी देशों में प्राप्त हो जाती है परिणामस्वरूप इससे तस्करी की समस्या समाप्त हो जाती है।
2. पूंजी व तकनीक का एक देश से दूसरे देश में गमन:- वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप पूंजी व तकनीक का एक देश से दूसरे देश में गमन होता है परिणामस्वरूप इससे राष्ट्र का विकास आसानी से होता है।
बढ़ता
है।
3. रोजगार में वृद्धिः- विदेशी निवेश आने से रोजगार में वृद्धि होती है। आधारभूत संरचना का विकास होता है तथा विदेशी अनुभव व प्रबंधन की प्राप्ति से देश में उद्यमिता व श्रमिकों का कौशल विकास तेजी से
4. जीवन स्तर में सुधार:- वैश्वीकरण के कारण सभी वस्तुएं कम कीमतों पर स्थानीय स्तर पर आसानी से मिल जाती है परिणामस्वरूप लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है।
5. विश्व शांति व विश्व व्यापार में वृद्धि:- वैश्वीकरण के कारण पूरा विश्व एक गाँव की भांति हो जाता है अतः युद्ध चुनौतियाँ समाप्त होने लगती है। राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता बढ़ने लगती है। परिणामस्वरूप विश्व शांति व विश्व व्यापार में वृद्धि होती है। जैसे-यूरोपीय यूनियन के देश दो बार विश्व युद्ध लड़ चुके है किन्तु अब वे एक-दूसरे पर इतने निर्भर हो चुके है कि युद्ध की बातें कहीं सुनाई नहीं देती है। इसी तरह भारत व चीन के बीच युद्ध न होने का यदि सबसे बड़ा प्रबल कारक है तो वह आपसी व्यापार ही है ।
6. प्रतिस्पर्धा में वृद्धि:- बहुराष्ट्रीय कम्पनियों (MNCs) के आगमन से देश में प्रतिस्पर्धा बढ़ती है और घरेलू कम्पनियाँ इस प्रतिस्पर्धा में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए अपनी कार्य संस्कृति, वस्तु व अपने उत्पादों व सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए बाध्य होती है। जिसका लाभ ग्राहकों को ज्यादा पहुँचता है ओर इस प्रतिस्पर्द्धा के कारण अर्थव्यवस्था तेज गति से बढ़ती है।
7. विदेशी मुद्रा के भण्डार में वृद्धि:- वैश्वीकरण के कारण विदेशी मुद्रा भण्डार में तेजी से वृद्धि होती है तथा भुगतान संतुलन के संकट की समस्या उत्पन्न ही नहीं होती हैं और न ही ऐसी परिस्थिति में हमें कर्ज लेने की जरूरत पड़ती है क्योंकि विदेशी निवेश के कारण स्वतः ही विदेशी मुद्रा प्राप्त हो जाती है।
8. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में भी वृद्धि:- विदेशी व्यापार में वृद्धि होने से राष्ट्र में उत्पादकता बढ़ती है इससे देश में तो रोजगार उत्पन्न होते ही है, विदेशों में भी रोजगार के अवसर उत्पन्न होते है तथा आर्थिक संबंधों में वृद्धि के कारण अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में भी वृद्धि होती है।
उपर्युक्त सकारात्मक पहलुओं के साथ साथ वैश्वीकरण के कुछ नकारात्मक पहलू भी देखने को मिलते है-
1. सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों का पतन:- सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों का इससे पतन होता है परिणामस्वरूप देश में बेरोजगारी बढ़ने का खतरा उत्पन्न होने लगता हैं।
2. MNCs का आर्थिक वर्चस्व में वृद्धि:- बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर निर्भरता राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से ठीक नहीं होती है इनसे इन MNCs का आर्थिक वर्चस्व स्थापित हो सकता है।
3. बेरोजगारी में वृद्धि:- बेरोजगारी में वृद्धि क्योंकि ये अत्यधिक तकनीकों व मशीनों का उपयोग करती है और इनसे प्रतिस्पर्धा के कारण घरेलू कम्पनियाँ भी ऐसा करने के लिए बाध्य होती है। परिणामस्वरूप देश का उत्पादन तो तेजी से बढ़ता है किन्तु बेरोजगारी भी उत्पन्न होने लगती है। इसलिए इसे 'रोजगारविहीन संवृद्धि' का मुख्य कारण माना जाता है।
4. आर्थिक असन्तुलन की समस्या उत्पन्नः- वैश्वीकरण के कारण आर्थिक असन्तुलन की समस्या उत्पन्न होने लगती है अर्थात् छोटे राष्ट्र व आयातक राष्ट्र व्यापार घाटे के शिकार होने लगते है और धीरें-धीरें वह भुगतान संतुलन के संकट में फँसने लगते है जो ऐसे राष्ट्रों की संप्रभुता के लिए एक बड़ी चुनौती होता हैं।
5. सभ्यता व संस्कृति को खतरा :- वैश्वीकरण के कारण तेजी से पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति हमारे देश में फैल रही है। इससे हमारे देश की सभ्यता व संस्कृति को खतरा हो सकता है।
6. आतंकवाद की चुनौती व अन्य अन्तर्राष्ट्रीय चुनौतियों का जन्म :- वैश्वीकरण के कारण आतंकवाद की चुनौती व अन्य अन्तर्राष्ट्रीय चुनौतियों का भी विश्वव्यापी प्रभाव पड़ रहा है। जैसे-मनी लॉड्रिग, काला धन, पर्यावरणीय चुनौतियाँ, साइबर हमलें, हवाला, ड्रग, तस्करी, संगठित अपराध आज प्रमुख वैश्विक चुनौतियाँ बन गई हैं।
वैश्वीकरण के प्रभाव
- वैश्वीकरण का आर्थिक प्रभाव
- वैश्वीकरण का भारतीय समाज पर प्रभाव
- वैश्वीकरण का विवाह एवं परिवार पर प्रभाव
- महिलाओं पर प्रभाव
- जनजातियों पर प्रभाव
- वैश्वीकरण का कमजोर और वंचित समूहों पर प्रभाव
वैश्वीकरण का आर्थिक प्रभाव
सकारात्मक प्रभाव :
- वैश्वीकरण ने अर्थव्यवस्था के स्वरूप में मूलभूत बदलावों को जन्म देते हुए ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था के विकास को संभव बनाया। जिसमें डिजाइन विकास, प्रौद्योगिकी, विपणन, बिक्री और सर्विस प्रदान करना शमिल हैं।
- वैश्वीकरण के अर्थव्यवस्था पर पड़े प्रभाव के फलस्वरूप सूचना प्रौद्योगिकी के प्रसार ने गति पकड़ी और इलेक्ट्रॉनिक अर्थव्यवस्था के उभार को संभव बनाया। जिससे ई-कॉमर्स, ई-शॉपिंग, इंटरनेट बैंकिंग और ऑन-लाईन ट्रेडिंग की संकल्पना लोकप्रिय हुई।
- वैश्वीकरण ने उत्पादन प्रणाली के साथ-साथ उत्पादन के स्वरूप में बदलाव को स्वीकारते हुए, बहुराष्ट्रीय कंपनियों/सीमापारीय कंपनियों के तेजी से उभार को संभव बनाया। अब वस्तुओं और सेवाओं का वैश्विक स्तर पर उत्पादन भी किया जाने लगा।
- वैश्वीकरण ने पूँजी, तकनीक, वस्तुओं और सेवाओं की आवाजाही पर निर्बंधनों को कमजोर करते हुए इनके सीमा पार प्रवाह को त्वरित किया।
- वैश्वीकरण ने वैश्विक व्यापार और निवेश के प्रवाह को बढ़ाने का काम किया। जिससे आर्थिक संवृद्धि दर में तेजी आई। विशेष रूप से इसका लाभ भारत, चीन, ब्राजील, और मैक्सिकों जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को मिला।
- वैश्वीकरण से उपभोक्ता वस्तुओं पर आधारित उद्योगों का तेजी से विकास हुआ। इसने उपभोक्तावादी संस्कृति के वर्चस्व को स्थापित करते हुए बाजार-संभावनाओं को विस्तार प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई। जैसे- ऑटोमोबाइल्स, मोबाइल, व्हाइट गुड्स (इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ), कोल्ड ड्रिंक, जंक फूड, बैंकिंग आदि।
नकारात्मक प्रभाव
- वैश्वीकरण के फलस्वरूप उत्पादन के स्वरूप में बदलाव से फैक्ट्रियों में मशीनों व नई तकनीक से उत्पादन किया जाने लगा, जिससे मशीनों पर निर्भरता बढ़ी एवं श्रमिक वर्ग में बेरोजगारी फैली।
- इलेक्ट्रॉनिक अर्थव्यवस्था के उभार ने जहाँ वैश्विक ग्राम की अवधारणा को जन्म दिया वहीं इसने साइबर अपराध यथा-साइबर आतंकवाद, हैकिंग, सोशल मीडिया पर झूठी अफवाहों से दंगों या आंदोलनों जैसी नवीन समस्याओं को ईजाद किया।
- वैश्वीकरण ने विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के माध्यम से बहुराष्ट्रीय या सीमापारीय कंपनियों को दूसरे देशों में उत्पादन के लिए उनके उभार को संभव बनाया, जिससे देशी उद्योगों को नवीन तकनीक से युक्त विदेशी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी और वे दयनीय स्थिति में पहुँच गई। उत्पादन लागत में मजदूरी की मात्रा में गिरावट ने इस संकट को और गंभीर बनाया है।
- वैश्वीकरण ने उपभोक्तावादी संस्कृति के वर्चस्व को बढ़ाया, जिससे बचत की प्रवृत्ति में ह्यस देखा जा रहा है।
- वैश्वीकरण के कारण आयी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कुछ विशेष क्षेत्रों में निवेश किया। जिसके परिणामस्वरूप सेवा क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ व इसने ऐसे विकास को जन्म दिया, जिसका लाभ धनी उपभोक्ताओं विशेष रूप से शहरी उपभोक्ताओं को मिला। जिस ने धनी शहरी वर्ग व गरीब ग्रामीण वर्ग की नवीन वर्ग विषमता को जन्म दिया।
वैश्वीकरण का भारतीय समाज पर प्रभाव
संस्कृति पर प्रभाव
- स्थानीय संस्कृति की वैश्विक पहुँच।
- स्थानीय लोक कलाओं, संस्कृतियों आदि की भूमिका में विस्तार।
- सांस्कृतिक विविधता को चुनौती।
- मनोरंजन के नवीन साधनों के कारण लोक कलाओं, साहित्यों आदि के महत्त्व में गिरावट।
- सांस्कृतिक पतन।
- आध्यात्मिक संस्कृति के स्थान पर भौतिकवादी एवं उपभोक्तावादी संस्कृति का विस्तार।
- पहचान के संकट के कारण सांस्कृतिक टकराहट की स्थिति।
वैश्वीकरण का विवाह एवं परिवार पर प्रभाव
सकारात्मक
- अंतरजातीय एवं अंतर-धार्मिक विवाह का प्रचलन।
- विवाह में युवक एवं युवतियों की भूमिका।
- विवाह में आधुनिक तकनीकी का प्रयोग।
- परिवार की सत्ता में परिवर्तन अर्थात् महिलाओं की स्थिति बेहतर।
- परिवार की संरचना एवं कार्य में परिवर्तन।
नकारात्मक
- कर्मकाण्डीय पक्ष कमजोर जबकि बाह्य आंडबर में वृद्धि।
- विवाह विच्छेद की दर में वृद्धि।
- विलंबित विवाह का प्रचलन।
- पारिवारिक विघटन की समस्या।
- परिवार एवं विवाहो के नवीन प्रकारों की उपस्थिति ।
- परिवार की भूमिका में कमी।
महिलाओं पर प्रभाव
सकारात्मक
- सामाजिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण।
- रोजगार के अवसरों में वृद्धि।
- जीवनशैली में बदलाव।
- नवीन महिला संगठनों की उपस्थिति के कारण महिलाओं की समस्या का समाधान।
नकारात्मक
- महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा, बलात्कार एवं अन्य असामाजिक घटनाओं में वृद्धि। श्रम का स्त्रीकरण।
- उपभोग की वस्तु के रूप में महिलाओं का चित्रण।
- कार्यस्थल पर महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार में वृद्धि।
जनजातियों पर प्रभाव
सकारात्मक
- जनजातियों का आधुनिकीकरण।
- जनजातियों की सामाजिक व आर्थिक गतिशीलता में वृद्धि ।
- शिक्षा व जागरूकता के प्रसार के कारण अंधविश्वासों से मुक्ति।
- महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर।
- जनजातीय समाज का एक दबाव समूह के रूप में सक्रिय होना।
नकारात्मक
- विकास परियोजनाओं के कारण जनजातियों का विस्थापन।
- आर्थिक समस्या के रूप में नक्सलवाद जैसी समस्या ।
- जनजातियों का सीमांतीकरण/ह्यसीकरण
- जनजातियों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक पतन।
वैश्वीकरण का कमजोर और वंचित समूहों पर प्रभाव
चूँकि वैश्वीकरण राज्य की कल्याणकारी भूमिका की बजाय बाजार की कुशलता पर जोर देता है और राज्य की सीमित भूमिका का पक्षधर है। इसलिए इसने समाज के निचले तबके और कमजोर आय वर्ग वाले लोगों को असुरक्षित कर दिया। विशेष रूप से असहाय व वंचित समूहों की स्थिति बदतर होती गई। कमजोर और वंचित समूहों पर पड़े वैश्वीकरण के प्रभावों को निम्नलिखित रूपों में देख सकते है-
नकारात्मक प्रभाव
- विकास परियोजनाओं के कारण जनजातियों का विस्थापन ।
- सामाजिक, आर्थिक समस्या के रूप में नक्सलवाद जैसी समस्या का जन्म।
- बाजारवादी ताकतों द्वारा संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के लिए अपनाई गई आक्रामक रणनीति के कारण आदिवासियों के अधिकारों की उपेक्षा करते हुए वनाधिकार कानून का उल्लंघन हुआ। इन वन-संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का लाभ तो बाजारवादी ताकतों और समाज के समृद्ध तबके को मिला, लेकिन इसने जिन प्रतिकूल पर्यावरणीय व पारिस्थितिकीय प्रभावों को उत्पन्न किया, उसका खामियाजा इन आदिवासियों को भुगतना पड़ा। इनकी भाषा और संस्कृति भी खतरे में पड़ती चली गई।
सकारात्मक प्रभाव
इसने परसंस्कृतिग्रहण (दो संस्कृतियों की अंतः क्रिया और पारस्परिक लेनदेन) को प्रक्रिया का तेज किया। दो भिन्न संस्कृतियाँ एक-दूसरे के करीब आई और उन दोनों ने एक -दूसरे के अच्छे तत्वों को आत्ससात करते हुए खुद को समृद्ध करने के काम किया।
परसंस्कृतिकग्रहण की इस प्रक्रिया ने ग्लोबल संस्कृति के उभार को ही संभव नहीं बनाया, वरन् ग्लोबलाइजेशन (संस्कृति के भूमण्डलीकरण) की प्रक्रिया भी शुरू हुई।
कुछ नई स्थानीय परंपराओं का निर्माण भी हुआ और भूमंडलीय परपराओं का निर्माण भी। फ्यूजन कल्चर, फ्यूजन म्यूजिक, रीमिक्स, इंडी-पॉप, भॉगड़ा-पॉप, हिंगलिश, मैक्डोनाल्ड का वेजीटेरियन एक्सपेरिमेंट, योग की अंतर्राष्ट्रीय पहचान, फिल्म आदि के परिप्रेक्ष्य में इसे देखा जा सकता है।
वैश्वीकरण और भारतीय ग्रामीण कृषक समाज
1990 के दशक में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को नेतृत्व प्रदान करने की जिम्मेदारी डब्ल्यू. टी.ओ. को सौंपी गई। 1995 में स्थापित डब्ल्यू.टी.ओ. के प्रावधानों के तहत भारत को भी कृषि पर समझोता (AOA) को लागू करना था। यह समझौता मात्रात्मक एवं गुणात्मक प्रतिबन्धों को समाप्त करते हुए कृषि व्यापार के उदारीकरण पर जोर देता है। इसी के तहत् कृषि-सब्सिडी और कृषिगत उत्पादों पर सीमा शुल्क में कटौती की दिशा में प्रयास अब भी जारी है।
इस आलोक में भारत के द्वारा भी कृषि व्यापार के उदारीकरण की दिशा में पहल की गई। मात्रात्मक प्रतिबन्धों को ढ़ीला किया गया। सीमा कर की दरों में भी कटौती की गई। इसके परिणामस्वरूप आज भारत का घरेलू बाजार आयातित फलों और खाद्य-सामग्रियों से पटा हुआ है। अब तक संरक्षित भारतीय कृषकों एवं कृषिगत-उत्पादों को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। इसका असर भारतीय कृषि और ग्रामीण कृषक समाज पर भी देखा जा सकता है। संविदा कृषि और किसानों की बढ़ती हुई आत्महत्याएं इस असर के परिणाम है।
- संविदा कृषि : इसके तहत बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ (राष्ट्रीय या बहुराष्ट्रीय) किसानों के साथ संविदा करती है। किसानों को कौन-सी फसल उगानी है, इसका निर्धारण कम्पनियाँ करती है। इन कम्पयों के द्वारा ही बीज, जानकारी और कार्यकारी पूंजी उपलब्ध करवाई जाती है। किसान बाजार के दबावों से निश्चित हो कर उत्पादन करते हैं। संविदा के प्रावधानों के तहत सम्बद्ध किसानों द्वारा पहले से तय किए गए मूल्य पर किसानों की समस्त उपज की खरीद की जाती है। संविदा कृषि के बढ़ते प्रचलन के कारण भारतीय कृषि के वाणिज्यिीकरण की प्रक्रिया तेज हुई। किसानों में बाजार के लिए उत्पादन करने की प्रवृत्ति उपजी। किसान बाजार के दबाव से मुक्त हुए और उन्हें वित्तीय सुरक्षा मिली। लेकिन, इसका नकारात्मक परिणाम यह हुआ कि प्रसंस्करण एवं कृषि भूमि का प्रयोग गैर-खाद्यान्न उत्पादनों के लिए किया जाने लगा। जैसे-कपास, तिलहन, फूल और फल, इसके परिणामस्वरूप किसानों की बड़ी-बड़ी कम्पनियों पर निर्भरता बढ़ी। कृषि से संबंधित पारंपरिक जानकारियाँ अप्रासांगिक होती चली गई। खाद एवं कीटनाशकों के उच्च मात्रा में प्रयोग के कारण कृषि क्षेत्र में उत्पादन लागत में भी वृद्धि हुई। इसके पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी सामने आए। इसने बड़ी संख्या में किसानों को उत्पादन प्रक्रिया से अलग करने का भी काम किया। कृषि क्षेत्र में प्रयुक्त मदों के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रवेश के कारण मँहगें खाद एवं कीटनाशकों पर किसानों की निर्भरता बढ़ी। किसान ऋणजाल में फँसते चले गये एवं उनका लाभ कम होता चल गया।
- किसानों की बढ़ती आत्महत्या : कृषि के भूमण्डलीकरण ने किसानों के लिए अवसर उपलब्ध करवाये। तो साथ ही, उन्हें बाजार से जोड़ते हुए उन पर बाजार के दबावों को बढ़ाने का भी काम किया। विशेष रूप से उन किसानों पर यह दबाव बढ़ा, जो बिना किसी संविदा के बाजार के लिए उत्पादन कर रहे थे। इसने जोखिम को बढ़ाने का काम किया। इस जोखिम का संबंध यदि बाजार की अस्थिरता से है, तो कृषि की अनिश्चितता से भी। उदारीकरण के पिछले दो दशक के दौरान शहर केन्द्रित विकास नीति अपनाए जाने के परिणाम स्वरूप किसानों और कृषि क्षेत्र की उपेक्षा भी हुई। कृषि-रियायतों में कमी आई। इसने किसानों पर दबाव को और अधिक बढ़ाने का काम किया। उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते असर को ग्रामीण कृषकों के ऊपर भी देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में असंगठित होने के कारण किसान दबाव समूह बनाकर सरकारी नीतियों पर भी प्रभाव नहीं डाल पाते। इन सबके परिणामस्वरूप किसानों की स्थिति कमजोर होती चली गई ऋण जालों में फँसते हुए किसान निरंतर आत्महत्या की तरफ अग्रसर होते चले गये।
किसानों की बढ़ती हुई आत्महत्या पर अगर गौर किया जाए, तो हम इस चौकानें वाले निष्कर्ष पर पहुँचते है कि आत्महत्या की यह प्रवृत्ति उत्तरप्रदेश एवं बिहार जैसे राज्यों में नहीं है, बल्कि आत्महत्या की ये घटनाएँ कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात एवं आन्ध्रप्रदेश जैसे राज्यों में हो रही है। ये कृषि की दृष्टि से विकसित राज्य है और वहाँ किसानों की स्थिति उत्तर भारतीय किसानों से बेहतर है। लेकिन, उन क्षेत्रों में कृषि का वाणिज्यीकरण हो चुका है। इसीलिए यहाँ की कृषि में पूंजी की भूमिका महत्वपूर्ण है। साथ ही, वाणिज्यीकरण ने यहां की कृषि को बाजार से जोड़ दिया है। विकसित होने के बावजूद यहाँ की कृषि अब भी मानसून पर निर्भर है।
वैश्वीकरण और शिक्षा
वैश्वीकरण राज्य की सीमित भूमिका का पक्षधर है। इसने राज्य की लोक कल्याणकारी संकल्पना को सीमित करने पर बल दिया। इसी के परिणामस्वरूप जन कल्याण के कामों पर खर्च कम करने की वैश्वीकरण की नीतियों के परिणामस्वरूप भारत की सरकारी शिक्षा को स्थायी, प्रशिक्षित व पर्याप्त वेतन वाले शिक्षकों से वंचित करके निजी शिक्षा के बाजार को बढ़ावा देने के लिए 'कॉन्ट्रैक्ट शिक्षक' एवं 'पारा शिक्षक' की संकल्पना को लागू किया गया। इससे शिक्षा के बाजारीकरण और व्यवसायीकरण को भी बल मिला। इसी के अनुरूप 'बहुकक्षा-अध्यापन की संकल्पना' भी सामने आई। इसके तहत् एक शिक्षक एक-साथ एक-से-अधिक कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाएंगे। साथ ही, वैश्वीकरण ने ई-लर्निंग, सैटेलाइट शिक्षा, रेडियो और टी.वी. के जरिए शिक्षा आदि को लोकप्रिय बनाया।
जहाँ तक भारत में उच्च शिक्षा का वैश्वीकरण के प्रभाव का प्रश्न है, तो इसे वैश्वीकण की जरूरतों से जोड़कर देखे जाने की जरूरत है। वैश्वीकरण ने विकासशील देशों के सस्ते श्रम के महत्व को उद्घाटित करते हुए उसके लिए वैश्विक बाजार में नवीन अवसर सृजित किए, बशर्ते वे योग्य, कुशल, प्रशिक्षित और तकनीकी विशेषज्ञता से लैस हों। इसलिए वैश्वीकरण विकासशील देशों के सस्ते श्रम-बाजार के लिए चुनौतियाँ और अवसर दोनों लेकर उपस्थित होती है। इन संभावनाओं के दोहन के लिए और शैक्षिक आधारभूत ढांचे के विस्तार की आवश्यकता महसूस हुई, दूसरी ओर शिक्षा के व्यवसायीकरण के जरिए तकनीकी व व्यावसायिक शिक्षा पर जोर दिए जाने की जरूरत को भी जन्म दिया। पिछले दो दशकों का अनुभव बतलाता है कि वैश्वीकरण की इन जरूरतों को पूरा करने के लिए व्यवसायीकरण व तकनीकी शिक्षा का बहुत तेजी से विस्तार हुआ, लेकिन इस क्रम में गुणवत्ता वाले पहलू की लगातर उपेक्षा हुई। इसने शिक्षा प्रणाली के संस्थागत ढांचे के विस्तार और विकास में भी अहम् भूमिका निभाई। साथ ही, शैक्षिक गतिविधियों के जरिए अपनी प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त को सुनिश्चित करने के लिए अनुसंधान और विकास की ओर रूझान बढ़ा। भारत में भी मल्टी डिस्सिप्लिनरी एप्रोच की अहमियत बढ़ी। इसने कला, विज्ञान, वाणिज्य, तकनीक और व्यवसायिक शिक्षा के फर्क को मिटाने का काम किया। लेकिन, अब भी सबसे बड़ी समस्या उच्च शिक्षा के अपर्याप्त ढांचे और संसाधनों की किल्लत की है। इसके मद्देनजर पिछले दो दशकों के दौरान उच्च शिक्षा के लिए विदेशी शिक्षण संस्थाओं की और भारतीयों का रूझान बढ़ा है। साथ ही, विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत लाने के मद्देनजर उच्च शिक्षा के निजीकरण और शिक्षा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की दिशा में पहल भी की जा रही है। लेकिन इसका एक दुष्परिणाम इस रूप में सामने आ रहा है कि परम्परागत शिल्प, पारंपरिक ज्ञान, आयुर्विज्ञान, परंपरागत भाषा आदि की अहमियत घटी है और इसकी उपेक्षा हो रही है। इसकी जगह अंग्रेजी, तकनीकी व व्यवसायिक शिक्षा का महत्व निरंतर बढ़ा है।
निष्कर्ष:- इस प्रकार उदारीकरण, जहाँ न्यूनतम औपचारिकता पर बल देता है अर्थात् कानून कायदे आदि कम से कम हो और सरकारी हस्तक्षेप समाप्त हो जायें तथा देश में एक उदार व्यापारिक वातावरण का निर्माण हो सकें, तो वहीं निजीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र के काम करने के लिए समान धरातल स्थापित करने पर बल देता है। साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के बजाय निजी क्षेत्र को बढ़ाने पर बल देता है ताकि प्रतिस्पर्धा को बढ़ाकर देश में औद्योगिक विकास किया जा सके।
वहीं वैश्वीकरण वस्तु, सेवा, पूंजी, तकनीक, श्रम, विदेशी निवेश व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे शेष विश्व के लिए खोलने पर बल देता है। इन तीनों के फलस्वरूप कुछ चुनौतियाँ भले ही उत्पन्न हुई हो किन्तु भारत में औद्योगिक क्षेत्र, सेवा क्षेत्र, तथा कृषि क्षेत्र में तेज गति से विकास को बढ़ावा मिला है। जिसके परिणामस्वरूप आज भारत विश्व के शक्तिशाली राष्ट्रों की सूची में पाँचवें स्थान पर पहुँच गया है तथा आज दुनियाभर में भारतीय श्रमिकों, उद्यमियों, व नागरिकों को एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त हुआ है।
वैश्वीकरण और भारतीय औद्योगिक क्षेत्र
वैश्वीकरण की प्रक्रिया भारतीय उद्योगों को खुले प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में काम करने की पृष्ठभूमि तैयार करती है। इसने भारतीय उद्योगों के लिए नवीन अवसर भी उत्पन्न किए और नवीन चुनौतियाँ भी। इसने भारतीय उद्योगों के लिए नवीन बाजार-संभावनाओं का विस्तार किया और इसके दोहन के लिए पूँजीगत संसाधनों के साथ-साथ तकनीक की उपलब्धता भी सुनिश्चित की, ताकि वे प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में काम कर सकें। इससे भारतीय उद्योगों का तकनीकी उन्नयन संभव हुआ। परिणामतः उनकी उत्पादकता, कार्यकुशलता और प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार हुआ। विशेष रूप से पिछले दो दशकों के दौरान भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग, दवा उद्योग और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की वैश्विक पहचान बनी। भारत आउटसोर्सिग के एक बड़े केन्द्र के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहा। इस दौरान विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारत आगमन हुआ और उनके द्वारा भारतीय कंपनियों का अधिग्रहण किया गया। ऐसे आरंभिक अधिग्रहणों में कोका कोला द्वारा पारले का अधिग्रहण काफी चर्चित रहा। इसी प्रकार कुछ भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भी तेजी से उभार हुआ। इन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विलय और अधिग्रहण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए अपनी वैश्विक पहचान निर्मित की। ऐसे अधिग्रहण में टाटा द्वारा कोरस का अधिग्रहण काफी चर्चित रहा।
वैश्वीकरण के भारतीय औद्योगिक क्षेत्र पर प्रभाव
सकारात्मक
- विदेशी निवेशकों ने भारत के विशाल उपभोक्ता बाजार में निहित संभावनाओं के दोहन के लिए, उपभोक्ता वस्तुओं पर आधारित उद्योगों के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश किया।
- विदेशी निवेश में वृद्धि से उपभोक्ता आधारित उद्योगों का विकास हुआ और भारतीय उपभोक्ताओं को कम कीमत पर बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पादों के विविध विकल्प उपलब्ध हो सकें।
- वैश्वीकरण के कारण उत्पादन प्रक्रिया का स्वरूप जटिल हुआ और इसने संगठित स्वरूप धारण किया।
- भारत के संसाधनों और सस्ते व कुशल श्रम के साथ-साथ निकट बाजार की उपलब्धता और कम परिचालन व्यय का लाभ उठाने विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत की ओर आकर्षित हुई। परिणामतः संयुक्त उत्पादन की प्रणाली शुरू हुई।
- विदेशी कम्पनियों ने स्थानीय कम्पनियों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया, जिससे स्थानीय कम्पनियों को निवेश हेतु पूंजी की उपलब्धता व तकनीक की सुलभता संभव हो सकी। इससे छोटे उत्पादकों के कार्य निष्पादन में सुधार हुआ और वे प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने में सक्षम हुए।
- वैश्वीकरण ने भारतीय अर्थव्यवस्था के ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के रूपांतरण में अहम भूमिका निभाई। सस्ते श्रम, कुशल श्रम और बेहतर अंग्रेजी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था ने सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति द्वारा संभव बनाए गए सूचनाओं के तीव्र प्रवाह का फायदा उठाते हुए आउटसोर्सिग कारोबार के केन्द्र के रूप में अपनी पहचान निर्मित की।
नकारात्मक प्रभाव
- वैश्वीकरण ने स्थानीय औद्योगिक इकाईयों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर उनके अस्तित्व को संकट में डाल दिया।
- अब तक दोहरे- संरक्षण को प्राप्त कर रही लघु औद्योगिक इकाईयों को जब प्रतिस्पर्द्धात्मक वातावरण में काम करना पड़ा, तो उनकी स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होती चली गई। औद्योगिक रूग्णता की समस्या तेजी से उभर कर सामने आई।
- वैश्वीकरण से नवीन तकनीक के आगमन के कारण औद्योगिक श्रमिकों का स्थान भारी मशीनों ने ले लिया। परिणामस्वरूप श्रमिकों की छंटनी के साथ-साथ हस्तशिल्प, बुनकर और दस्तकारी उद्योगों की स्थिति खराब हुई।
- उपभोक्तावादी संस्कृति का जन्म हुआ जिससे घरेलू, बचत राशि में कमी आई।
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