भारत में आर्थिक सुधार
भारत में आर्थिक सुधार 1991 में शुरू किया गया क्योंकि भरतीय अर्थव्यवस्था में अनेक आर्थिक असंतुलन उत्पन्न हुए थे जिसके समाधान हेतु आर्थिक सुधारो की आवश्यकता का अनुभव किया गया।
- देश में राजकोषीय घटा तीव्र गति से बढ़ रहा था वर्ष 1990 - 91 में यह 8.4% की ऊँचे स्तर पर था।
- भुगतान संतुलन का संकट 10000 करोड़ तक बढ़ गया था।
- 1990 - 91 भारत का विदेश ऋण सकल घरेलु उत्पाद का 23 % तक पहुंच गया था। विश्व बैंक एवं अंतरास्ट्रीय मुद्रा कोष भारत को ऋण प्रदान करने मैं सहमत नहीं हो रहा था।
- सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक उपक्रमों का घाटा बढ़ता जा रहा था जो लाल फीताशाही एवं अकुशलता का परिणाम था।
- मुद्रा स्फीति तीव्र गति से बढ़ते हुए 18 % के उच्च स्तर पर पहुंच गयी थी।
- 1990 - 91 मे विदेशी मुद्रा कोष बहुत ही कम था वे 10 दिन के आयात के मूल्य का भुगतान करने के लिए पर्याप्त नहीं थे।
भारत में आर्थिक सुधार (Economic Reforms in India Since 1991)
भारत सरकार द्वारा जुलाई 1991 से अपनाई गई आर्थिक नीति नई आर्थिक नीति के नाम से जानी जाती है। स्वतंत्रता से जून 1991 तक हमारे द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीतियाँ तीव्र आर्थिक वृद्धि के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं रहीं। इसने हमें आर्थिक संकट की ओर, राजकोषीय घाटे, प्रतिकूल भुगतान संतुलन, असक्षमता और लाल फीताशाही की तरफ ढकेला। आर्थिक संकट से बाहर आने के लिए और आर्थिक वृद्धि की दर को तेज करने के लिए जुलाई 1991 में नई आर्थिक नीति सामने आई।
नई आर्थिक नीति निम्नलिखित उद्देश्य प्राप्त करना चाहती है:
सार्वजनिक क्षेत्र के विकास की प्राथमिकता को कम करना (Reducing Priority Development of Public Sector)
सार्वजनिक क्षेत्र अब उच्च टेक्नोलॉजी और आधारभूत ढाँचे के महत्वपूर्ण क्षेत्र जैसे-सड़कें, रेलवे, ऊर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य, जल आपूर्ति और सीवेज सुविधाओं आदि पर ध्यान देगी। सार्वजनिक क्षेत्र को दी गई 17 उद्योगों में से 9 जुलाई 1991 की औद्योगिक नीति के अंतर्गत आते हैं। ये उद्योग हैं लौह और इस्पात, विद्युत, वायु यातायात, नौका निर्माण, भारी विद्युत मशीनरी, दूर संपर्क, केबल और यंत्र-संयंत्र आदि के हैं। सरकार ने इनके अंशों को वित्तीय संस्थाओं, जनता और श्रमिकों में अंशों का कुछ भाग देने की योजना बनाई।
विदेशी निजी निवेश के लिए खुले दरवाजे (Open Door to Foreign Private Investment)
नई आर्थिक नीति ने निजी विदेशी निवेश नीति का स्वागत किया और बाहरी निवेश पर लगे प्रतिबंधों को हटाया। पहले विदेशी सहायता, उनकी एजेंसियाँ, एशियन बैंक और IMF पर प्रतिबंध था।
अर्थव्यवस्था का उदारीकरण (Liberalisation of Economy)
सरकार द्वारा प्रत्यक्ष और भौतिक नियंत्रण को निम्नलिखित के संदर्भ में उदार बनाया गया
- (i) औद्योगिक लाइसेंसिंग
- (ii) उत्पादों की कीमत और वितरण नियंत्रण
- (iii) आयात लाइसेंसिंग
- (iv) विदेशी विनिमय नियंत्रण
- (v) कंपनियों द्वारा पूँजीगत व्ययों पर नियंत्रण
- (vi) बड़े व्यापार संगठनों द्वारा निवेश पर प्रतिबंध।
उदारीकरण नीति के पीछे मुख्य उद्देश्य कीमतों और प्रतियोगिता को अर्थव्यवस्था में मुख्य भूमिका निभाने देना है। सरकार ने यह महसूस किया कि ये प्रतिबंध उचित नहीं थे। ये सिर्फ भ्रष्टाचार, विलंब और अकुशलता के लिये जिम्मेदार हैं।
अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था से एकीकरण (Integration of the Economy with the World Economy)
नई आर्थिक नीति का यह मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था, विश्व अर्थव्यवस्था के साथ गहरा संबंध रखे। इसके परिणामस्वरूप वस्तुओं, टेक्नोलॉजी और अनुभव के विनिमय में आसानी हुई। अतः आयात लाइसेंसिंग पर लगे मात्रात्मक प्रतिबंधों को हटाया गया। आयात चुंगी की दर घटा दी गई।
हमारी नीतियों में किए गए ये सभी परिवर्तन हमारे आर्थिक विकास और इससे संबंधित नीतियों पर अपना असर डालेंगे। अतः नई आर्थिक नीति का उद्देश्य अधिक प्रतियोगी और बेहतर वातावरण बनाना है जिससे अर्थव्यवस्था में सुधार किया जा सके।
आर्थिक सुधार/नई आर्थिक नीति की आवश्यकता (Need of the Economic Reforms/New Economic Policy)
अप्रैल 1951 से नियोजित विकासात्मक अर्थव्यवस्था अपनाई गई है। हमारा मुख्य उद्देश्य अधिक सामाजिक कल्याण और पिछड़े गरीब लोगों को ऊपर उठाना था। हमने समाजवादी पद्धति को अपनाया। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आर्थिक प्रणाली की तरह मिश्रित अर्थव्यवथा सामने आई। 1951-1990 के काल के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र को ऊँची प्राथमिकता दी गई। इस काल ने सफलता-असफलता दोनों को पाया। 1951-91 के काल की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- (i) सार्वजनिक क्षेत्र को अधिक प्राथमिकता।
- (ii) निजी क्षेत्र के कार्यों पर नियंत्रण।
- (iii) सार्वजनिक क्षेत्र में अफसरशाही (Bureaucracy) और लाल-फीताशाही (Red Tapism)।
- (iv) जून 1991 तक आर्थिक संकट की शुरूआत।
- (v) विदेशी विनिमय में कमी।
- (vi) नए विदेशी ऋण की अनुपलब्धता।
- (vii) गैर-निवासियों (Non-Resident) द्वारा अपने खातों को बंद करना।
- (viii) USSR के बिखराव (Disintegration) और टूटने का बुरा असर।
- (ix) राजकोषीय घाटे में वृद्धि।
- (x) भुगतान संतुलन घाटे में वृद्धि
- (vi) विदेशी विनिमय कोष में भारी गिरावट।
आर्थिक नीति की आवश्यकता
राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit)
यद्यपि हमने नियोजित विकासात्मक अर्थव्यवस्था को अपनाया है लेकिन हमारे गैर विकासात्मक व्यय कुल व्यय के बहुत अधिक अनुपात में हैं। राजकोषीय घाटा जो 1981-82 में GDP का 5.4% था 1991 में GDP का 8.4% तक बढ़ गया। इस घाटे को पूरा करने के लिए सरकार भारी ऋण लेती है। परिणामस्वरूप ऋण और ब्याज की अदायगी बढ़ती जाती है। राष्ट्रीय ऋण पर ब्याज जो कुल सरकारी व्यय का 1980-81 में 10% था 1991 में बढ़कर 36% हो गया। उस अवस्था में हमारी अर्थव्यवस्था कर्जा के जाल में फंसी थी। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा फंड जैसे IMF ने हमारी आर्थिक प्रणाली से अपना विश्वास खो दिया। इस तरह की स्थिति ने सरकार को नई आर्थिक नीति बनाने के लिए विवश किया जिससे गैर विकासात्मक व्यय को रोककर ऋणों के जाल से बचा जा सके।
राजकोषीय घाटे से हमारा अर्थ अनुमानित व्यय का अनुमानित राजस्व से अधिक होना है। ऐसे में अनुमानित व्यय की अनुमानित राजस्व पर अधिकता होती है।
प्रतिकुल भुगतान शेष (Unfavourable Balance of Payment)
भुगतान संतुलन, जो हमें विदेशों को भुगतान करना है और जो हमें विदेशों से प्राप्त करना है उसके बीच का अंतर है। प्रतिकूल भुगतान संतुलन की स्थिति में हमें प्राप्त करने से अधिक भुगतान करना पड़ता है। हमारा भुगतान संतुलन घाटा जो 1980-81 में 2,214 करोड़ से 1990-91 में बढ़कर 17,367 करोड़ हो गया। इसे पूरा करने के लिए सरकार के पास बाहरी ऋणों पर निर्भर होने के अलावा कोई चारा नहीं था। परिणामस्वरूप हमारे विदेशी ऋण जो हमारे GDP के 12% थे 1990-91 में बढ़कर 25% हो गए। यह स्थिति अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हुई। इस प्रकार नई आर्थिक नीति की आवश्यकता प्रतिकूल भुगतान संतुलन को कम करने के लिए महसूस की गई।
विदेशी विनिमय कोष में कमी (Reduction in Foreign Exchange Reserve)
बढ़े हुए राजकोषीय घाटे और प्रतिकूल भुगतान संतुलन के कारण विदेशी विनिमय कोष में कमी आई। 1990-91 में यह स्थिति इतनी खराब हो गई कि हम लोग 10 दिनों तक विदेशी आयात बिलों का भुगतान नहीं कर पाए। यह संकट इस कदर बढ़ा कि चंद्रशेखर सरकार ने देश के रिजर्व कोष से स्वर्ण कोष गिरवी रखा जिससे वह ऋण की अदायगी के लिए ऋण प्राप्त कर सकें। इस संकट ने सरकार पर अंतर्राष्ट्रीय रूप से दबाव डाला कि वह उदारीकरण तथा निजीकरण की नई आर्थिक नीति लागू करे।
कीमतों में वृद्धि (Increase in Prices)
1951-91 के काल के दौरान अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी दबाव महसूस किए गए। कृषि और औद्योगिक विकास की दर को बढ़ाने के लिए सरकार अत्यधिक व्यय करने लगी। सामाजिक कल्याण को देखते हुए भी हमारे व्यय बढ़ गए। गैर विकासात्मक व्यय भी अधिक थे। उत्पादन और व्यय में तालमेल कभी भी नहीं बैठ सका। परिणामस्वरूप वस्तुओं की कीमतें बढ़ती रहीं। इस सब ने सरकार पर दबाव डाला कि वह अपने व्ययों को नियंत्रित करे। इसलिए अर्थव्यवस्था में नई आर्थिक नीति की जरूरत हुई जिसे जुलाई 1991 में लागू किया गया।
खाड़ी संकट (Gulf Crises)
1990-91 के दौरान इराक की लड़ाई चल रही थी। इसने अरब देश को युद्ध में शामिल किया, जिससे पेट्रोल का संकट उत्पन्न हो गया। पेट्रोल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ गई। इस संकट से खाड़ी देशों पर हमारे द्वारा किए जाने वाले निर्यात पर भी बुरा असर पड़ा। फलस्वरूप हमारे भुगतान संतुलन की स्थिति बिगड़ने लगी।
सार्वजनिक क्षेत्र की अकशलता (Inefficiency of Public Sector)
40 वर्षों के बाद हमने ये अनुभव किया है कि सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार और संसाधनों की बर्बादी हुई है। सार्वजनिक क्षेत्र में 1100 करोड़ रुपयों का निवेश करने के बाद हमें इससे केवल 3% का लाभ मिला। अत: नई आर्थिक नीति सार्वजनिक क्षेत्र की सक्षमता और दूसरी इकाइयों के कार्य करने के ढंग में सुधार लाने का प्रयास है।
आर्थिक सुधार (नई आर्थिक नीति ) की विशेषताएँ (Main Features of Economic Reforms) (New Economic Policy)
अर्थव्यवस्था का उदारीकरण (Liberalisation of Economy)
उदारीकरण का अर्थ अनावश्यक व्यापार प्रतिबंधों को हटाकर अर्थव्यवस्था को प्रतियोगी बनाना है। नई आर्थिक नीति ने निजी क्षेत्र से अधिक नियंत्रण और लाइसेंसिंग को हटाकर अर्थव्यवस्था को अधिक उदार बनाया। नई आर्थिक नीति ने उदारीकरण के निम्नलिखित उपाय प्रस्तुत किए हैं-
- (i) लाइसेंसिंग से उद्योगों को छुटकारा (Exemption of Industries from Licensing)- सरकार ने सभी उद्योगों को लाइसेंस से छुटकारा (exemption) प्रदान करा दिया। आजकल कोई भी व्यापारी बिना किसी प्रतिबंध के अपनी कंपनी बना सकता है।
- (ii) उद्योगों का विस्तार (Expansion of Industries)- आजकल उद्योग बाजार की जरूरत के अनुसार अपना विस्तार कर सकते है। यहाँ तक कि सरकार की अनुमति की भी जरूरत नहीं होती।
- (iii) उत्पादन की स्वतंत्रता (Freedom of Production)- नई आर्थिक नीति के अनुसार उत्पादन अपनी मर्जी की वस्तु का उत्पादन कर सकते हैं।
- (iv) MRTP की धारणा से दूर जाना (Guiing Away with the CUILepluf MRTP)- अब MRTP कंपनियाँ नहीं हैं। कंपनियाँ अब अपने निवेश निर्णय और व्यय से संबंधित योजनाएँ खुद बना सकती हैं।
- (v) लघु उद्योगों की निवेश सीमा को बढ़ाना (Extending Investment Limit of Small Industries)- नई आर्थिक नीति के अनुसार लघु उद्योगों की निवेश सीमा को बढ़ाकर 1 करोड़ कर दिया जाय जिससे वे अपने उद्योग को आधुनिक कर सके।
- (vi) विदेशों से कच्चे माल और मशीनरी का मुक्त आयात (Free Import of Machinery and Raw Material from Abroad)- अब कंपनियाँ जरूरी विदेशी चीजों को खुले बाजार से खरीद सकती हैं। इसके लिए सरकार से अनुमति लेने की कोई जरूरत नहीं है। ये उदार नीति बाजार में प्रतियोगिता को पैदा करती है जिससे कुशलता में बढ़ोत्तरी होती है।
एक टिप्पणी भेजें